________________
१४०
प्रबन्धकोश का ऐतिहासिक विवेचन
परवर्ती मुसलमानों द्वारा लिपिबद्ध कर लिये गए हैं। इस प्रकार इस्लाम में भी ऐतिहासिक परम्पराओं (तारीखी रवायत ) का महत्त्व
कुछ विद्वानों का कथन है कि सल्तनत युग में इतिहास-लेखन की एक जीवन्त परम्परा कश्मीर की तरह गुजरात में भी विद्यमान रही है जिस पर अरबी यात्रियों एवं मुसलमान इतिवृत्तकारों का प्रभाव पड़ा।' इस कथन का उत्तरार्द्ध सही नहीं प्रतीत होता है क्योंकि भारत में प्राचीन काल से ही भृग्वांगिरस् परिपाटी युगों से चली आ रही थी, जो ऐतिहासिक परम्परा की अवधारणा को स्पष्ट करती है।
परम्परा के सन्दर्भ में राजशेखर ने 'श्रूयते ह्यद्यापि', 'श्रूयते सम्प्रत्यपि', 'अद्यापि' आदि शब्दों के प्रयोग किये हैं। विक्रमादित्य प्रबन्ध में तो राजशेखर द्वारा राम-कथा की परम्परा को जीवित बनाये रखने का स्तुत्य प्रयास किया गया है। आगे वह लिखता है कि पूर्वजों की परम्परा से जो ज्ञात है उसे आपको बतलाया।'
इस प्रकार राजशेखर की परम्परा की अवधारणा में 'गुरुमुख श्रुतं' जन परम्परा, बृद्धाः प्राहुः, को प्रायः समान स्थान दिये गए हैं । 'यादशं श्रुतं तादृशं लिखितम्' वाला सिद्धान्त राजशेखर ने प्रयुक्त किया था। राजशेखर ने वस्तुपाल की विद्वत्ता और सम्पन्नता के सम्बन्ध में 'अवस्थाः शृणुमः' के आधार पर प्रबन्ध रचा। व्याख्याओं को सुन-सुनकर तत्त्वयुक्त मति द्वारा मांस-परिहार की रचना की जाती थी। आगे राजशेखर प्रथम मोजदीन सुल्तान के अभियान का वर्णन अनुश्रुति के ही आधार पर करता है कि ऐसी मान्यता है कि उसकी
१. विलियम गोल्ड-सेक : द ट्रेडिशन्स इन इस्लाम, मद्रास, १९६९, पृ० १। २. हसन मोहिबुल : हिस्टोरिएन्स ऑफ मेडिवल इण्डिया, मेरठ, १९६८,
पृ० ११-१२ । ३. 'स काश्चित् श्रीरामस्य वार्ताः पारम्पर्यायाताः सम्यग् विवेद ।'
प्रको, पृ० ८०। ४. 'पूर्वज पारम्पर्योपदेशात् ज्ञातं तुभ्य मुक्तं च ।' वही, पृ० ८३ । ५. 'अवस्थाः शृणुमः । यथा' वही, पृ० १११ । ६. व्याख्या श्रावं श्रावं ।' वही, पृ० ११३ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org