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१३६ ] प्रबन्धकोश का ऐतिहासिक विवेचन
अतः राजशेखर के इतिहास-दर्शन की आधारशिला यदि उसके स्रोत है तो कारणत्व वे ईंटें हैं जिन पर उसने इतिहास-भवन का निर्माण किया। (२) परम्परा
परम्परा एक सामाजिक विरासत है। परम्परा का तात्पर्य लोगों के विचारों, आदतों और प्रथाओं के संकलित रूप से है, जिनका पीढ़ीदर-पीढ़ी सम्प्रेषण होता है। ऐसे ऐतिहासिक साहित्य में से ऐतिहासिक परम्परा को खोजा जा सकता है। यदि प्राचीन भारतीय इतिहास के स्रोतों का दोहन किया जाय तो ऐतिहासिक परम्परा प्राप्त हो सकती है। कौटिल्य के लिए 'इतिहास' का उद्देश्य इस प्रकार से अतीत की घटनाओं का वर्णन करना था जो हिन्दू-परम्परा के लक्ष्यों के अनुरूप हों। परन्तु जैनों ने ऐतिहासिक परम्परा को प्रबन्धों और राजवंशावलियों के माध्यम से सुरक्षित कर रखा है क्योंकि जैन धर्मगुरुओं और सूरियों को ऐतिहासिक परम्परा के प्रति अगाध प्रेम रहा है।
पुरातनता और परम्परा के बीच बिन्दु और रेखा का सम्बन्ध है। पुरातन देश होने के नाते भारत सहज ही परम्पराप्रिय रहा है। युगयुगीन धर्म और संस्कृति की धाराओं को अजर-अमर बनाने के लिये जैनों ने भी भगीरथ प्रयास किये हैं। यही कारण है कि राजशेखर ने अपने इतिहास-दर्शन में परम्पराओं को मूर्धन्य स्थान दिया है । जहाँ 'परम्परा' शब्द सद्-आगम और सद्-गुरुओं का बोधक है, वहाँ यह प्रामाणिकता का द्योतक भी है। इतिहास अपने प्रारम्भ से ही परम्पराओं की स्थापना करता चलता है। परम्पराओं का कार्य १. थापर, रोमिला : ऐन्शियेण्ट इण्डियन सोशल हिस्टरी, दिल्ली, १९७८,
पृ० २६९। २. अर्थशास्त्र, प्रथम, ५। ३. परम्परागत आगम और गुरुओं को सर्वप्रथम स्थान है। इसलिये
'आचार्यगुरुभ्यो नमः' के स्थान पर 'परम्पराचार्य गुरुभ्यो नम:' का प्रचलन है। दे० शास्त्री, नेमिचन्द्र : तीर्थङ्कर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा, सागर, १९७४, पृ०७।।
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