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राजशेखर का इतिहास-दर्शन : कारणत्व, परम्परा एवं कालक्रम [ १३७
भूतकाल की आदतों एवं शिक्षाओं को भविष्यकाल में ले जाना है।' व्यापक अर्थ में परम्परा उन सभी प्रथाओं, साहित्यिक उपायों तथा अभिव्यक्ति की आदतों को प्रकट करती है जो किसी ग्रन्थकार को अतीत से प्राप्त हुई हो। परम्परा किसी विशिष्ट धर्म या दर्शन, साहित्यिक रूप, युग और संस्कृति की भी हो सकती है, जैसे- जैनपरम्परा, प्रबन्ध-परम्परा, राजपूत-युग की परम्परा और चौलुक्यसंस्कृति की परम्परा । अच्छे अर्थ में हम कहते हैं कि अमुक ग्रन्थकार एक महान् परम्परा का प्रतिनिधित्व करता है। बुरे अर्थ में हम कहते हैं कि अमुक ग्रन्थकार केवल परम्परावादी है। परम्पराओं के साथ इतिहासकार का सम्बन्ध बड़ा जटिल होता है। कोई भी इतिहासकार कितना ही अन्धानुयायी क्यों न हो, वह अपनी उत्तराधिकृत परम्परा में आवश्यकतानुसार संशोधन करता ही है क्योंकि भाषा की गत्यात्मकता परम्पराओं में संशोधन करा ही देती है। इसका कारण यह है कि सभी एकत्र परम्पराओं को स्मरण रखना असम्भव है। अधिकांश विलुप्त हो जाती हैं। जो परम्पराएँ राजाओं, धर्माचार्यों या विद्वानों के लिए विशेष महत्व और रुचि की होती थीं उन्हें ही सुरक्षित रखा जाता है। अतः ऐसी परम्पराओं को केवल इसलिये भी अमान्य नहीं करना चाहिये कि उनमें विरोधाभास है । ब्यूलर ने जैन परम्पराओं की प्रामाणिकता, उनके मोल और इतिहास में उनके महत्व की अत्यधिक प्रशंसा की है।'
यद्यपि प्रभावकचरित, प्रबन्धचिन्तामणि, पुरातनप्रबन्धसंग्रह, विविधतीर्थकल्प और प्रबन्धकोश जैसी जैन-कृतियाँ गौड़वहो की तरह समकालीन लेखा नहीं प्रदान करती हैं तथापि उनमें अबाध परम्परा द्वारा सुरक्षित सामग्री ऐतिहासिक चरित्र की है। राजशेखर इतिहास
१. कार : ह्वाट इज हिस्टरी, पृ० १०८ ।
२. शिप्ले : डिक्शनरी ऑफ वर्ल्ड लिटरेचर, न्यू जर्सी, १९६२, पृ० ४१८ । . ३. ब्यूलर : द इण्डियन सेक्ट ऑफ द जैन्स, में दे० "आन द ऑथेण्टिसिटी ___ऑफ जैन ट्रेडिशन्स' ( अनु. ) बर्गस, लन्दन, १९०३, पृ० २१-२३ । ४. दे० आयंगर, एस० के० : ऐन्शियेण्ट इण्डिया, १९४१, पृ० ३४५;
बीबी आर ए एस, तृतीय, मई १९२८, पृ० १०३ ।
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