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राजशेखर का इतिहास-दर्शन : स्रोत एवं साक्ष्य [ १२१
यह श्लोक नरेन्द्र प्रभु के गिरनार शिलालेख के काव्यांश का सातवाँ और उसकी वस्तुपाल-प्रशस्ति का २७वाँ भी है । अतः प्रमाणित होता है कि प्रबन्धकोश की ख्याति पन्द्रहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में भी थी। __ मुनिसुन्दरसूरि के शिष्य शुभशीलमणि का एक ग्रन्थ भोजप्रबन्ध और दूसरा पञ्चशतीप्रबोध-सम्बन्ध ( १४६४ ई०) प्राप्त होता है। इन ग्रन्थों में प्रबन्धकोश का प्रचुर प्रयोग किया गया है। शुभशीलगणि ने पञ्चशतीप्रबोध-सम्बन्ध की कथाओं के संकलन में अनेक स्रोतों का आश्रय लिया है। वे कहते हैं कि “गुरु-परम्परा तथा जैनजैनेतर ग्रन्थों का उपयोग करके यह ग्रन्थ रचा गया है । ३ पञ्चशतीप्रबोध-सम्बन्ध में विशेषतः प्रभावकचरित, प्रबन्धचिन्तामणि, पुरातनप्रबन्ध-संग्रह, प्रबन्धकोश आदि जैन-ग्रन्थों तथा रामायण, महाभारत, हितोपदेश, पञ्चतन्त्र आदि में प्राप्त सामग्रियों का उपयोग किया गया है । पञ्चशतीप्रबोध-सम्बन्ध के ऐतिहासिक प्रबन्धों, नन्द, सातवाहन, भर्तृहरि, भोज, कुमारपाल, हेमसूरि आदि की कथाएँ द्रष्टव्य हैं। प्रबन्धकोश की शैली पर पञ्चशतीप्रबोध-सम्बन्ध में संस्कृत व्याकरण के कठिन प्रयोगों से मुक्त सरल भाषा, लोकभाषा और उसका संस्कृतीकरण रूप में प्रचुर प्रयोग हुआ है। राजशेखर की भाँति शुभशीलमणि ने भी अनेक फारसी शब्दों का भी प्रयोग किया है तथा कलन्दर, कागद, खरशान, मोहरि, बीबी, मसीत, मीर, मुलाण, मुशलमान, हज, हरीमज आदि । शभशीलमणि कृत शालिवाहनचरित (१४८३ ई० ) और हेमविजयगणि विरचित कथारत्नाकर ( १६०० ई० ) में श्रेणिक, विक्रम, सातवाहन, कालिदास, भोज आदि
१. प्रा०० लेख संग्रह, भाग २ ( सम्पा० ) जिन विजय, सं० ४-४; आचार्य
जी० वी० हिस्टोरिकल इंस्कृप्शंस ऑफ़ गुजरात, सं० २१० । २. पंचशतीप्रबोध-सम्बन्ध नामक ग्रन्थ गद्य-पद्य मिश्रित है जिसमें संस्कृत,
प्राकृत और अपभ्रश के सुभाषित अवतरण रूप में स्थान-स्थान पर
दृष्टिगोचर होते हैं। ३. "किञ्चिद्गुरोराननतो निशम्य, किञ्चित् जिनान्यादिक शास्त्रश्य", दे०
जैसाबइति, भाग ६, पृ० २४६ ।
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