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________________ राजशेखर का इतिहास-दर्शन : स्रोत एवं साक्ष्य [ ११९ के भी उद्वेग के कारण होते हैं।' पुरातनाचार्य संगृहीत कुमारपालप्रबोध-प्रबन्ध में कम से कम दस श्लोकों को प्रबन्धकोश का साक्ष्य मानकर उद्धृत किया गया है जिनमें से दो श्लोकों का यहाँ वर्णन करना आवश्यक है क्योंकि ये नीति-परक हैं। पहले श्लोक का भावार्थ है कि कटु-वाणी मत बोलो और दूसरे श्लोक का आशय है कि मन को स्थिर करो, क्योंकि चिन्ता करने से कुछ नहीं होता। उक्त दोनों प्रबन्ध-ग्रन्थों में कहा गया है कि सूर्योदय श्लाघनीय है अन्य नक्षत्रों का उदय होने से ही क्या ? उसके उदय होने पर न तेज टिकता है और न अन्धकार । कुमारपालप्रबोध-प्रबन्ध में प्रबन्धकोश से यह पद्य भी ग्रहण किया गया है जिसमें कपर्दी ने भी चौलुक्य से कहा कि हेमचन्द्र के प्रभाव से शुद्ध हो जाना है।' आगे दोनों ग्रन्थों में स्त्रियों पर विश्वास न करने का परामर्श दिया गया है। एक स्थल पर कुमारपालप्रबोध-प्रबन्ध में तुकबन्दी का नियमोल्लंघन करके १. याचको वञ्चको व्याधिः पञ्चत्वं मर्मभाषकः । योगिनामप्यमी पञ्च प्रायेणोद्वेगहेतवः ॥ कुपाच, पृ० ५२, पद ६४; प्रको, पृ० ५६, पद्य १५७ । २. अये ! भेकच्छेको भव भवतु ते कूपकुहरं, शरण्यं दुर्मत्तः किमु रटसि वाचाट ! कटुकम् ? पुर: सर्पो दो विषमविषस्यूत्कारवदनो, ललज्जिह्वो धावत्यहह भवतौ जिग्रसिषया । कुपाच, पृ० ९९, पद ४९८; प्रको, पृ० ५१, पद १४८ । कुमारपाल मत चित करि चिंतिउ किंपि न होई । जिणि तुह रज्जु समोपियउं चितं करेसिई साई ।। __कुपाच, पृ० ९९, पद ५००; प्रको, पृ० ५१, पद १५१ । ३. खेरेवोदयः श्लाघ्यः को न्येषानुदयाग्रहः । न तमांसि न तेजांसि यस्मिन्नभ्युदिते सति ॥ __ कुपाच, पृ० ५६, पद ८६; प्रको, पृ० ३६, पद १०७ । ४. कुपाच, १०७/५२७; प्रको, ४९/१४६ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002121
Book TitlePrabandh kosha ka Aetihasik Vivechan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravesh Bharadwaj
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1995
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size11 MB
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