________________
(xiii)
बौद्ध परम्पराओं के समानान्तर रही है । इसने उनका अनेकशः समर्थन और सम्पोषण किया है, उनकी प्रामाणिकता को गौरव दिया है । साथ ही इसकी स्वतन्त्र स्थिति और महत्ता भी रही है । जैन इतिहास - परम्परा की उपेक्षा से भारतीय इतिहास का सच्चा और समग्र रूप कभी भी स्पष्ट नहीं हो सकेगा ।
जैन ग्रन्थों में इतिहास की सामग्री बिखरी हुई है । इसके प्रति विश्वास और आदर के भाव बढ़े हैं । इसके अतिरिक्त जैन परम्परा
इतिहास-संरचना का भी सुस्पष्ट और सुदीर्घ इतिहास है । इतिहास की परिधि में आने वाले जैन ग्रन्थों में, उनकी विशेषताओं और लक्षणों के आधार पर, कई साहित्यिक विधियों की पहचान हो सकती है । गुर्वावलिया पट्टावली के अतिरिक्त हम पुराण, प्रबन्ध और चरितग्रन्थों को देखते हैं । ये पारिभाषिक नाम ब्राह्मण परम्परा में इनके प्रयोग के सर्वथा समानार्थक नहीं है । कुछ अर्थों में समानान्तर होने पर भी इनकी अपनी विशेषतायें और अपेक्षायें हैं । इन विधाओं के आरम्भ और विकास का अध्ययन अत्यन्त रोचक और ज्ञान-वर्धक है ।
राजशेखर की कृति “प्रबन्धकोश" प्राचीन भारतीय इतिहास की एक उपयोगी और महत्वपूर्ण रचना है । एक लम्बी अवधि के बहुपक्षीय इतिहास के लिये इसमें बहुमूल्य सामग्री का संकलन प्राप्य है । स्रोत- सामग्री के ग्रन्थ के रूप में आधुनिक इतिहासकारों के लिए इसकी उपयोगिता के अतिरिक्त इसकी श्रेष्ठता जैन परम्परा में इतिहास - संरचना के एक उत्कृष्ट उदाहरण के रूप में भी है। राजशेखर द्वारा प्रस्तुत इतिहास का मूल्यांकन इतिहास रचनाशास्त्रीय दृष्टि से करने से और अधिक निखर जाता है । इससे इतिहास के विभिन्न तथ्यों और बिन्दुओं, व्यक्ति और घटनाओं का स्वरूप सुस्पष्ट होता है । राजशेखर, उनके व्यक्तित्व और परिवेश का विश्लेषण उनके द्वारा प्रस्तुत विवेचन की विशिष्टता और सीमा को रेखांकित करने में सहायक है ।
-
डॉ० प्रवेश भारद्वाज ने मेरे और प्रो० श्रीमती कृष्णकान्ति गोपाल के सफल निर्देशन में वह शोध कार्य सम्पादित किया है । उनका प्रयास
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org