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राजशेखर का इतिहास दर्शन : स्रोत एवं साक्ष्य [ १११
स्रोत
इतिहास - लेखन में स्मृति और स्रोत आवश्यक उपकरण हैं । ये स्रोत इतिहासकार के लिए पवित्र होते हैं । उसे उनमें परिवर्तन, संशोधन, परिवर्द्धन या खण्डन नहीं करना चाहिए । स्रोत गल्प भी हो सकते हैं और दूषित भी । इतिहासकार आलोचनात्मक व रचनात्मक तरीकों से अपने स्रोतों से परे भी जा सकता है ।"
राजशेखर अपने स्रोतों के विषय में सजग है और कहता है कि उसने गुरुमुख से सुने हुए चौबीस प्रबन्धों का संग्रह किया है ।" प्रबन्धकोश की रचना ( १३४९ ई० ) के पूर्व गद्य-पद्य में रचित प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश में अनेक ग्रन्थ विद्यमान थे । राजशेखर ने उन ग्रन्थों में से अपनी रुचि के अनुकूल विषयों का चयन करके सरल संस्कृत में
अपना गद्य-प्रधान ग्रन्थ रचा ।
उपलब्ध स्रोतों की अधिकता से इतिहास-लेखन में व्यवधान उत्पन्न हो सकता है । किन्तु राजशेखर ने चयन-प्रणाली द्वारा इस बाधापर विजय प्राप्त की थी । जिस प्रकार वैदिक-दर्शन व इतिहास में वेदों को अत्यन्त प्रामाणिक माना जाता है उसी प्रकार जैन इतिहास और दर्शन में आगम ग्रन्थों को प्रमाणभूत माना जाता है । जैनों में किसी रचना की ग्रन्थों की श्रेणी में गणना तभी होती है जब वह आगम ग्रन्थों का अनुसरण करे । अतः राजशेखर का प्राथमिक स्रोत आगम-ज्ञान रहा जो उसने चिरकाल से चली आ रही परम्परा द्वारा ग्रहण किया होगा ।
हरिभद्र के ग्रन्थ, जैन लौकिक साहित्य, जैनचरित व प्रबन्ध एवं ब्राह्मण महाकाव्य व पुराण भी उसके स्रोत रहे होंगे। इन स्रोत -ग्रन्थों का उसने अपने प्रबन्धकोश में स्थान-स्थान पर उल्लेख किया है ।
१. कॉलिंगउड, आर० जी० : द आइडिया ऑफ हिस्टरी, लन्दन, १९६१, पृ० २३५ व पृ० २४० ।
२. " इदानी वयं गुरुमुखश्रुतानां विस्तीर्णानां रसायानां चतुविशते प्रबन्धानां सङ्ग्रह कुर्वाणाः स्म । " प्रको, पृ० १
३. ओमन, सर चार्ल्स : ऑन द राइटिङ्ग ऑफ हिस्टरी, लन्दन, १९३९,
प्रस्ताव०, पृ० षष्ठ ।
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