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प्रबन्धकोश का ऐतिहासिक विवेचन
में वह कहता है कि यहाँ पर मन्त्रिद्वय के 'कीर्तनों' की गणना की जायगी । यहाँ पर 'कीर्तन' शब्द का प्रयोग इतिवृत्त के अर्थ में किया गया है । 'कीर्तन' का एक अर्थ होता है मन्दिर और दूसरा अर्थ होता है इतिवृत्त प्रस्तुत करना या वृत्तान्त कहना । स्वयं राजशेखर ने प्रबन्धकोश के अन्त में 'कीर्त्तनानि' शब्द के बाद 'श्रूयन्ते' प्रयोग किया है जिससे राजशेखर की यह भावना प्रकट होती है कि वह इतिवृत्त सुनाना चाहता था ।
इस प्रकार राजशेखरसूरि ने इतिहास की एक सुस्पष्ट अवधारणा बना ली थी। उसने इतिहास - लेखन को एक पृथक् शास्त्र मानते हुए अपना इतिहास दर्शन स्रोतों, साक्ष्यों, परम्पराओं, कारणत्व एवं कालक्रम पर आधारित किया । उसने स्थान-स्थान पर स्रोत-ग्रन्थों का यथेष्ट उपयोग किया है और उनमें से अनेक के उद्धरण भी दिये हैं । फिर उसने प्रबन्धकोश को तिथियों एवं कालक्रम से जैसा गुम्फित कर दिया है उससे यह प्रतीत होता है कि राजशेखर को इतिहास की सच्ची पकड़ थी क्योंकि उसने जैनाचार्यों अथवा चौलुक्य राजाओं के वर्णन क्रमानुसार किये हैं । इसी कारण उसने तिथि क्रम की भी आवश्यकता महसूस की क्योंकि तिथि इस क्रम को बनाये रखने के अतिरिक्त घटना को काल से बाँधकर उसकी परिस्थितियों को समझने में भी सहायक होती है । इस प्रकार भारतीय इतिहास-लेखन के सम्बन्ध में अल्बीरूनी द्वारा लगाये गये तिक्त आरोपों का सटीक प्रत्युत्तर राजशेखरसूरि ने प्रबन्धकोश की रचना करके दिया ।
इस अध्याय में इतिहास दर्शन के प्रमुख तत्त्वों के आधार पर प्रबन्धकोश के स्रोतों और साक्ष्यों का तथा अगले अध्याय में कारणत्व, परम्परा, कालक्रम आदि का विवेचन किया जायगा ।
१. " कीर्तनसंख्या तयोब्रूमः ", वही, पृ० १०१ ।
२. अल्बीरूनी ( सचऊ : २.१० ) का आरोप है कि "हिन्दू लोग घटनाओं
के ऐतिहासिक क्रम की ओर अधिक ध्यान नहीं देते । वे राजाओं के कालक्रमीय वंश -क्रम देने में अत्यन्त असावधानी से काम लेते हैं और जब कभी सूचना देने के लिये उन पर दबाव डाला जाता है तो किंकर्तव्यविमूढ़ होकर कथाएँ कहना आरम्भ कर देते हैं ।"
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