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राजशेखर का इतिहास-दर्शन : स्रोत एवं साक्ष्य [ १०९
पूर्व मध्ययुगीन भारत के सभी ऐतिहासिक ग्रन्थों को आधुनिक इतिहास-दर्शन के चौखट में सुस्थित करना समीचीन नहीं है । किन्तु राजशेखर के प्रबन्धकोश का अध्ययन इस रीति से किया जा सकता है क्योंकि वह इतिहास को साहित्य की परिधि से बाहर निकाल सकने में सफल रहा। राजशेखर ने अपने ज्ञान को तीन क्षेत्रों में विभाजित किया था, यथा- (१) साहित्य, (२) इतिहास और (३) दर्शन जिनमें कल्पना, स्मृति और बुद्धि का क्रमशः सन्तुलित उपयोग किया गया था। परन्तु उसने इतिहास को स्मृति के अलावा परम्पराओं, अनुश्रुतियों और चक्षुदर्शियों पर भी आधारित किया था। इस प्रकार राजशेखर ने इतिहास को साहित्य से पृथक् किया और उसे एक स्वतन्त्र शास्त्र का दर्जा प्रदान किया।
राजशेखर ने 'वृत्या', 'प्रागुक्तं वृत्त', 'ऐतिह्य', 'प्राचीन वृत्त', 'सत्यवार्ता' तथा 'पूर्ववृत्त' शब्दों के प्रयोग इतिहास के लिये किये हैं।' जो इतिहास नहीं है उनके लिये 'कथा' शब्द का प्रयोग किया है, जैसे उदयन-प्रबन्ध के अन्त में राजशेखर कहता है कि यह कथा जैन-सम्मत नहीं है। इस प्रबन्धकार ने इतिहासकार के लिये 'पुराविदा स्थविरेण' शब्द प्रयुक्त किया है। वस्तुपाल प्रबन्ध में तो राजशेखर 'इतिहासशास्त्रीय' शब्द तक प्रयुक्त करता है। जिससे यह सिद्ध होता है कि राजशेखर के लिए इतिहास एक स्वतन्त्र शास्त्र था । . उसने वह वृत्तान्त जैसा घटा था वैसा ही निवेदित किया। जिन वृत्तान्तों या घटनाओं के काल के बारे में राजशेखर पूर्णतः सुनिश्चित नहीं रहता था, उनके लिये 'बहुकालो गतः' कहकर काम चला लेता था। राजशेखर ने इतिहास से सम्बन्धित अपनी अवधारणा को वस्तुपाल-प्रबन्ध में मूर्तरूप प्रदान किया है। वस्तुपाल-प्रबन्ध के प्रारम्भ
१. 'न नाम्ना नो वृत्या"..' प्रको, पृ० १९; 'इत्युक्त्वा तस्य प्रागुक्तं वृत्तं
सकलमावेदयत्', वही, पृ० ६९; 'तावद्देव्याः प्राचीनं वृत्तमाकर्ण्य', वही, पृ० ७७, पृ० ७८, पृ० ९६; 'एकदा वृद्धेभ्यः श्रुतमैतिह्यम्', वही,
पृ० १२१ । २. 'इयं च कथा जैनानां न सम्मता""', वही पृ० ८८ । ३. वही, पृ० ७६, पृ० ११३ ।
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