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ऐतिहासिक तथ्य और उनका मूल्यांकन (क्रमशः) [७९
प्रतिमा का अपहरण कर सेडी नदी के किनारे प्रतिष्ठापन किया । वह उस प्रतिमा के समक्ष सातवाहन की रानी चन्द्रलेखा से प्रत्येक रात्रि रसमर्दन करवाता था। रस-स्तम्भन से पार्श्वदेव के उस स्थान का नाम स्तम्भनतीर्थ तथा गाँव का नाम स्तम्भनपुर पड़ा।
जिनविजयजी ने नागार्जुन की कथा को ऐतिहासिक दृष्टि से सन्दिग्ध माना है। "उसके कोई राजा या राजपुरुष होने की बात ज्ञात नहीं होती। प्रबन्धगत वर्णन से तो वह कोई योगी अथवा सिद्धपुरुष ज्ञात होता है। तो फिर ग्रन्थकार ( राजशेखरसूरि ) ने उसकी गणना राजा या राजपुरुष के रूप में किस आशय से की है सो ठीक समझ में नहीं आता।
जिनविजय की अनास्था शीघ्र-निर्णय दोष से संयुक्त है। यह इस बात से सूचित होता है कि उक्त सन्दर्भ में उन्होंने नागार्जुन की माँ को राजपुत्र रणसिंह की पत्नी' कहा है जो कि यथार्थतः पुत्री थी।
प्राचीन भारत में नागार्जुन नाम के तीन व्यक्ति हुए हैं -(१) शून्यवाद के प्रवर्तक और बौद्ध दार्शनिक नागार्जुन-जो कुषाण राजसभा में थे। ( २ ) नागार्जुनसूरि ( वाचक )- इन्होंने ३०३ ई० में दक्षिणापथ के जैन मुनियों को वलभी में एकत्र करके चौथी आगमवाचना की। ( ३ ) राजपुत्र नागार्जुन ( रसायनवेत्ता ).-ये क्षत्रिय थे जो कालान्तर में रस-सिद्ध रसायनवेत्ता हो गये थे।
वस्तुतः प्रबन्धकोशागत राजपुत्र नागार्जुन का समय द्वितीय शताब्दी ई० से तृतीय शताब्दी ई० के बीच का ही है, क्योंकि प्रबन्धग्रन्थ के आन्तरिक साक्ष्य इस कालावधि की पुष्टि करते हैं। राजपुत्र नागार्जुन निस्सन्देह पादलिप्त सूरि ( द्वितीय शताब्दी ई०) का शिष्य था। शिष्य को तृतीय शताब्दी में ही रखना होगा, क्योंकि पादलिप्तसूरि को दीर्घायु प्राप्त थी। इसके अतिरिक्त राजशेखर की इतिहासलेखन शैली भी इस मत का अनुमोदन करती है। राजशेखर ने १. सेडी या सेढी को श्वेतन दी ( मध्य भारत ) कहते हैं जो साबरमती से
निकली है । दे० हिज्योलॉ, ३८८ । २. जिनविजय ( सम्पा.) : प्रको, प्रास्ताविक वक्तव्य, पृ० १।
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