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ऐतिहासिक तथ्य और उनका मूल्यांकन ( क्रमशः )
१७. विक्रमादित्य प्रबन्ध
विक्रमादित्य अवन्ति का राजा था। उसके पुत्र का नाम विक्रमसेन था । इतिहास - लेखन में रोचकता लाने के लिए राजशेखर ने विक्रमादित्य के सिंहासन में लगी चारों काष्ठ पुतलियों के माध्यम से इतिवृत्त का वर्णन किया है । एक बार देशान्तर जाकर विक्रमादित्य ने एक योगी से परकाया प्रवेश विद्या सीखी और उस विद्या का भी परीक्षण किया ।
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अग्निबेताल के साथ जाकर विक्रमादित्य लीलावति से मिला जिसके रूप-दर्शन से राजा को प्रेम हो गया । तत्पश्चात् बेताल ने विक्रमादित्य को चार उपकथाएँ सुनायीं जो काष्ठ-भक्षण, नियोग, पतिव्रता तथा पति-धर्म से सम्बन्धित थीं ।
विक्रमादित्य का इतिवृत्त सुनकर उसके पुत्र विक्रम का गर्व जाता रहा है । विक्रमादित्य ने रामायण का अध्ययन किया। तत्पश्चात् उसके मन में गर्व हुआ कि वह भी राम की तरह प्रजा को सुखी करेगा । एक बार किसी रत्न की परीक्षा कराने के लिए विक्रमादित्य बेताल के साथ राजा बलि के पास पहुँचे । बलि बोला, ऐसे हजारों रत्न राजा युधिष्ठिर प्रतिदिन सुपात्रों को दिया करते थे । इस रत्न का कोई मूल्य नहीं है ।
प्रबन्धकोश के अतिरिक्त प्रभावकचरित, प्रबन्धचिन्तामणि, पुरातन- प्रबन्ध संग्रह आदि भी विक्रमादित्य की जीवनी और उपलब्धियों पर प्रकाश डालते हैं । यद्यपि ये प्रबन्ध ऐतिहासिक और वास्तविक पुरुष विक्रमादित्य के हैं तथापि अनेक काल्पनिक और चमत्कृत कथाओं के अतिरिक्त कोई गौरवपूर्ण बात नहीं ज्ञात होती है ।
विक्रम विरुद् धारण करने वाले अनेक राजा हुए हैं, यथा - आदि विक्रमादित्य ( ५७ ई० पू० ), शातकर्णी शालिवाहन, अग्निमित्र, कनिष्क, गौतमी पुत्र, समुद्रगुप्त, चन्द्रगुप्त द्वितीय ( ३७५-४१४ ई०), स्कन्दगुप्त ( ४५५-४६७ ई० ), यशोधर्म ( ५३२-३३ ई० ), हर्ष, हेमू ( १५५६ ई० ) आदि । परन्तु इनमें से कोई भी ऐसा नहीं था जो अवन्तिपति, शकविजेता और संवत् प्रवर्तक तीनों एक साथ रहा हो ।
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