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प्रबन्धकोश का ऐतिहासिक विवेचन
यह प्रमाणित किया जा चुका है कि सम्प्रति की दो राजधानियाँ थीं और उसके समकालीन सुस्थिताचार्य थे। लेकिन सम्प्रति को प्रतिबोधित करने का श्रेय गुरु सुहस्तिसूरि को है, न कि सुस्थिताचार्य को। पहली राजधानी में गुरु सुहस्ति ने सम्प्रति को जैनधर्म में दीक्षित किया और दूसरी राजधानी के समीप शिष्य सुस्थित ने वकचूल को। ___ सुस्थित के दोनों शिष्यों - धर्मऋषि और धर्मदत्त की पहचान ऋषिदत्त और अर्हद्दत्त से की जा सकती है जो सुस्थित के पाँच प्रमुख शिष्यों में से अन्तिम दो थे। वङ्कचूल द्वारा कामरूप-विजय पर प्रश्नचिह्न लगाना पड़ता है। प्रबन्धकोश में वर्णन है कि वकचूल को उज्जयिनी के राजा का सामन्त बन जाने के बाद कामरूप-विजय के लिए जाना पड़ा। वहाँ के राजा का नाम दुर्धर कहा गया। वकचल युद्ध में घाव से जर्जर हो गया, फिर भी वह जीतकर अपने स्थान लौटा। किन्तु ढिंपुरी से असम की अत्यधिक भौगोलिक दूरी और यातायात के मन्दगामी साधनों को देखने से ऐसा प्रतीत होता है कि राजशेखरसूरि ने कामरूप-विजय की कल्पना जैनधर्म के प्रति अति आस्था के कारण कर ली होगी, क्योंकि प्रबन्धकार एक ऐसे प्रदेश पर जैन धर्मावलम्बी की विजय दर्शाना चाहता था जो कश्मीर की भाँति शक्ति-पूजा का केन्द्र हो। ___ अन्त में, यदि कतिपय अतिशयोक्तियों एवं चमत्कारिक वर्णनों को त्याग दिया जाय तो राजा वकचल का प्रबन्ध महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक तथ्य प्रदान करता है। वकचूल का इतिवृत्त क्रूरता के माध्यम से उदारता की और वैराग्य के माध्यम से अध्यात्म की पराकाष्ठा है। इस प्रबन्ध में सत्संगति के माहात्म्य पर प्रकाश डाला गया है । सम्प्रति-कालीन सुस्थिताचार्य के चार महीनों के आपात-प्रवास से राजकुमार वङ्कचूल का हृदय-परिवर्तन नहीं हुआ, किन्तु उनके द्वारा बतलाये गये चार नियमों ने उसकी क्रूरता को समाप्त कर उसे उदारमना राजा अवश्य बना दिया। इस प्रकार राजशेखर ने प्रबन्धकोशान्तर्गत वकचूल को राजवर्ग में सम्मिलित करने का औचित्य भी सिद्ध कर दिया।
१. जैन कहानियाँ, भाग २४, पूर्वनिर्दिष्ट, पृ० ७० ।
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