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________________ ऐतिहासिक तथ्य और उनका मूल्यांकन ( क्रमशः ) [ ७५ * हुए दर्शाया गया है ।" अजमेर, कुम्भल्मेर और गिरनार में उसके द्वारा निर्मित और महावीर को समर्पित मन्दिरों के अवशेष आज भी पाये जाते हैं । अभिलेख और मुद्राएँ भी ये प्रमाणित करती हैं कि उसकी रुझान जैनधर्म की ओर थी । सम्प्रति के एक सिक्के पर एक ओर ऊपर-नीचे सम्प्र और दी शब्द लिखा है और दूसरी ओर ऊपरनीचे और चिह्न है । किसी-किसी सिक्के में के नीचे 5 ( स्वस्तिक ) चिह्न बने हैं । इन सिक्कों से उसके राज्य शासन पर प्रकाश पड़ता है । सामान्य रीति से मौर्य सिक्कों में ऊपर से नीचे, • और 55 चिह्न हैं । जैन हमेशा प्रभु के सामने यह निशान बनाते हैं ।" इससे भी इस विचार को बल मिलता है कि सम्प्रति जैन अशोक और द्वितीय चन्द्रगुप्त कहलाने का अधिकारी था जिसके समकालीन सुस्थिताचार्य और वङ्कचूल थे । इसके बाद प्रश्न है राजा विमलयश और उसके पुत्र वङ्कचूल के शासनान्तर्गत प्रदेश की सीमा का । सम्प्रति को पाटलिपुत्र और उज्जैन दोनों में शासन करते हुए दर्शाया गया है । इससे प्रतीत होता है कि उज्जयिनी उसकी द्वितीय राजधानी थी । सम्प्रति ने जिस अधिकारी को उज्जयिनी के समीप ढिपुरी नगरी में नियुक्त किया, वह विमलयश था, जिसे प्रस्तुत प्रबन्ध में अति उत्साह के कारण राजा कह दिया गया है । विमलयश राजा भले ही न रहा हो किन्तु वङ्कचूल प्रबन्धकोश के अनुसार सिंहगुहापल्ली का पल्लीपति अवश्य था, जिसकी स्थिति आस-पास के बीहड़ और पर्वतीय इलाकों में किसी स्थानीय राजा से कम न थी । १. जैपइ, पृ० २०४, बाली, चन्द्रकान्त : पत्रिका, २०३९, पृ० ९८; परिशिष्टपर्वन्, दसवीं, ग्यारहवां; रायचौधरी, प्राभारा इति, पृ० २५८ । २. टाड : एनल्स ऐण्ड ऐण्टि० ऑफ राज०, ग्रन्थ १, पृ० २९०; राजपूताना गजेटियर, शिमला, १८८०, तृतीय, पृ० ५२, दे० फोब्र्स : रासमाला, १८५६, प्रथम, पृ० ७; प्रोग्रे० रिपोर्ट, ए एस डब्ल्यू आई, १९०९ - १०, पृ० ४१ । ३. माडर्न रिव्यू, १९३४, जून, पृ० १४७ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002121
Book TitlePrabandh kosha ka Aetihasik Vivechan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravesh Bharadwaj
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1995
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size11 MB
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