SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 91
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ योग की अवधारणा : जैन एवं बौद्ध (३) जिस प्रकार जैन परम्परा में सम्यग्दर्शन का अभिप्राय देव, गुरु प्रति निष्ठा माना गया है, ठीक उसी प्रकार बौद्ध परम्परा में भी श्रद्धा का और धर्म के प्रति निष्ठा किया गया है। ७७ (४) साधना-मार्ग के रूप में दोनों ही परम्परायें धर्म के प्रति निष्ठा को आवश्यक मानती हैं। और धर्म के अर्थ बुद्ध, संघ (५) जिस प्रकार जैन परम्परा में अरहंत को देव के रूप में साधना का आदर्श माना गया है, उसी प्रकार बौद्ध परम्परा में बुद्ध या बुद्धत्व को साधना का आदर्श माना गया है। (६) जिस प्रकार जैन परम्परा में शंका, कांक्षा, विचिकित्सा आदि दोष सम्यग्दर्शन के माने गये हैं, उसी प्रकार बौद्ध परम्परा में भी कामच्छन्द, व्यापाद, स्त्यानमिद्ध, औद्धत्य - कौकृत्य और विचिकित्सा आदि पाँच नीवरण रूपी दोष माने गये हैं, जिनमें जैन परम्परा का कांक्षा नामक दोष, बौद्ध परम्परा के कामच्छन्द नामक दोष के समान है। ऐसे ही विचिकित्सा दोनों परम्पराओं में समान रूप से मान्य है। (७) दोनों ही परम्परायें भेदाभ्यास द्वारा अनात्म के स्वरूप को जानकर उसमें आत्मबुद्धि का त्याग करना ही सम्यग्ज्ञान की साधना है - ऐसा मानती हैं। (८) यदि हम जैन परम्परा के सम्यक् चारित्र और बौद्ध परम्परा के शील पर विचार करते हैं तो पाते हैं कि दोनों ही परम्परायें एक-दूसरे के निकट हैं। यद्यपि दोनों ही परम्पराओं में नाम और वर्गीकरण की पद्धतियों में अन्तर है, लेकिन दोनों का आन्तरिक स्वरूप समान है । सम्यक् आचरण के लिए जो अपेक्षायें जैन जीवन-पद्धति में मान्य हैं वही अपेक्षायें बौद्ध जीवन-पद्धति में भी स्वीकृत हैं, मात्र कहने का तरीका अलग-अलग है। Jain Education International (९) तप के स्वरूप में भी दोनों परम्पराओं में बहुत कुछ समानताएँ देखने को मिलती हैं, यथा- ऊनोदरी तप, विविक्त शयनासन तप, प्रायश्चित तप, विनय तप, स्वाध्याय तप, व्युत्सर्ग तप, ध्यान तप आदि बौद्ध परम्परा में उसी तरह विवेचित हैं, जिस तरह जैन परम्परा में हैं। बौद्ध परम्परा में इनकी अस्पष्टता का कारण है कि इनका विधिवत विवेचन नहीं हुआ है, ये यत्र-तत्र ग्रन्थों में उपलब्ध हैं। तप के विषय में यदि दोनों परम्पराओं में भिन्नता है तो अनशन और उपवास को लेकर । बौद्ध परम्परा में उपवास को लम्बी तपस्या के रूप में उतना महत्त्व नहीं दिया गया है जितना कि जैन परम्परा में । इसका कारण यह हो सकता है कि बौद्ध परम्परा में तप के स्थान पर योग को अधिक For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002120
Book TitleJain evam Bauddh Yog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudha Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2001
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Biography
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy