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________________ जैन एवं बौद्ध योग : एक तुलनात्मक अध्ययन क्षणभंगुर, सारहीन तथा घृणित समझना आदीनव- ज्ञान कहलाता है । (५) निर्वेद -ज्ञाननाम-रूप के प्रति अरुचि निर्वेदज्ञान कहलाता है। (६) मुञ्चितुकम्यता - ज्ञान - मुक्ति की इच्छा का उत्पन्न होना ही मुञ्चितकम्यताज्ञान है । (७) प्रतिसंख्यान - ज्ञान - अनित्य, दुःख तथा अनात्म लक्षणों की बार-बार विपश्यना करना प्रतिसंख्यान ज्ञान कहलाता है । (८) संस्कारोपेक्षाज्ञान- जब साधक नाम रूप धर्मों के त्रिलक्षण (अनित्य, दुःख और अनात्म) को भली-भाँति जान लेता है तब वह न तो धर्मों से अनुराग करता है और न ही उन्हें भयानक समझता है। अतः मैं नहीं, मेरा नहीं, पर नहीं आदि भाव के साथ संस्कारों को देखना संस्कारोपेक्षाज्ञान है। ७६ उपरोक्त आठों ज्ञान के पश्चात् साधक को मार्गज्ञान एवं फलज्ञान रूपी प्राप्त होनेवाले बोधिपक्षीयज्ञान को अनुलोम ज्ञान कहते हैं। इसे व्युत्थगामिनी (मार्ग) विपश्यना भी कहते हैं। ज्ञानदर्शनविशुद्धि स्त्रोतापत्तिमार्ग, सकृदागामीमार्ग, अनागामीमार्ग एवं अर्हत्मार्ग - इन चार मार्गों का ज्ञान ज्ञानदर्शनविशुद्धि कहलाता है। इस प्रकार विपश्यना की भावना में साधक को किसी बाह्याडम्बर की आवश्यकता नहीं होती, बल्कि उसे अपने पंचस्कन्ध स्वरूप के विषय में ही सूक्ष्म चिन्तन करना होता है। उपर्युक्त शीलविशुद्धि से लेकर ज्ञानदर्शनविशुद्धि तक जो चर्चा की गयी है उसमें शीलविशुद्धि तथा चित्तविशुद्धि ही विपश्यना - भावना की मूल है, शेष सभी शुद्धियाँ तो उस भावना के शरीर हैं। तुलना जैन एवं बौद्ध योग सम्बन्धी अवधारणाओं का तुलनात्मक स्वरूप इस प्रकार प्रस्तुत कर सकते हैं --- (१) दोनों ही परम्पराएँ त्रिविधि साधना पथ को समवेत रूप में ग्रहण करती हैं। जैन सम्मत सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र तीनों एक-दूसरे से अलग होकर नहीं वरन् समवेत रूप में ही मोक्ष की प्राप्ति करा सकते हैं। इसी प्रकार बौद्ध परम्परा में भी शील, समाधि और प्रज्ञा अथवा प्रज्ञा, श्रद्धा और वीर्य को समवेत रूप में ही निर्वाण प्राप्ति का कारण माना गया है। (२) जिस प्रकार जैन परम्परा में सम्यग्दर्शन का अर्थ तत्त्वश्रद्धा है, उसी प्रकार बौद्ध परम्परा में सम्यग्दृष्टि का अर्थ चार आर्य सत्यों के प्रति श्रद्धा है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002120
Book TitleJain evam Bauddh Yog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudha Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2001
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Biography
File Size14 MB
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