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________________ योग की अवधारणा : जैन एवं बौद्ध ७५ चित्तविशुद्धि, (३) दृष्टि- विशुद्धि, (४) कांक्षावितरणविशुद्धि, (५) मार्गामार्गज्ञानदर्शनविशुद्धि, (६) प्रतिपदा-ज्ञानदर्शनविशुद्धि, (७) ज्ञानदर्शनविशुद्धि। ___शीलविशुद्धि- शील विशुद्धि के अन्तर्गत प्रातिमोक्षसंवरशील, इन्द्रियसंवरशील, आजीवपारिशुद्धिशील तथा प्रत्ययसंनिश्रितशील आते हैं, जिनकी चर्चा इस अध्याय में पूर्व में की जा चुकी है। चित्तविशुद्धि-इसके अन्तर्गत कामच्छन्द आदि पाँच नीवरणों का शमन किया जाता है। जिसकी चर्चा पूर्व में की जा चुकी है। दृष्टिविशुद्धि- रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार तथा विज्ञान के अतिरिक्त मानव शरीर में आत्मा नाम की कोई सत्ता नहीं है। आत्मा सम्बन्धी यही मान्यता समाप्त हो जाने से योगी की दृष्टिविशुद्ध हो जाती है। कांक्षावितरणविशुद्धि- क्या मैं अतीत भव में था? क्या मैं अतीत भव में नहीं था? अतीत में मैं कौन और किस प्रकार का था? पूर्व के तृतीय भव में किस जाति का होकर द्वितीय भव में किस जाति का था?२२२ इत्यादि शंकाओं का अतिक्रमण करनेवाला ज्ञान जो सभी मलों से विशुद्ध हो, 'कांक्षावितरणविशुद्धि' है।' मार्गामार्गज्ञानदर्शनविशुद्धि- मार्ग तथा अमार्ग को जानने और देखने में साधक सक्षम हो जाता है तब उसके चित्त में प्रकाश ज्योति की अनुभूति होती है, फलतः, साधक अवभास, प्रीति आदि अमार्ग की ओर अग्रसर नहीं होता और विपश्यना की विशुद्धि बनी रहती है। इसीलिए इसे मार्गामार्गज्ञानदर्शनविशुद्धि के नाम से जाता है।२२३ __ प्रतिपदाज्ञानदर्शनविशुद्धि- मार्ग प्राप्ति के कारणभूत प्रतिपदा (मार्ग एवं फल) के ज्ञान और दर्शन में विशुद्धि को प्रतिपदाज्ञानदर्शनविशुद्धि कहते हैं। इसके आठ प्रकार हैं (१) उदयव्यय-ज्ञान- जब साधक मार्गामार्गज्ञानदर्शनविशुद्धि के बाद अवभास, प्रीति आदि की ओर विशेष ध्यान न देकर निरन्तर उदयव्यय ज्ञान की भावना करता है, फलतः उपक्लेशक धर्मों का नाश होता है तथा अनित्य दुःख तथा अनात्म इन तीन लक्षणों का स्पष्ट ज्ञान होता है। यही उदयव्यय ज्ञान कहलाता है। (२) भंग-ज्ञान- जब साधक नाम रूप धर्मों का उदय-व्यय देखने लगता है तब शीघ्रता से होनेवाले उदयव्यय में से वह उदय को छोड़कर भंग का आलम्बन करने लगता है। (३) भय-ज्ञानभंग का सम्यक्-शान हो जाने के बाद ये नाम-रूप धर्म अत्यन्त भयावह हैं इस प्रकार का साधक को ज्ञान होना भयज्ञान कहलाता है। (४) आदीनव-ज्ञान- शरीर को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002120
Book TitleJain evam Bauddh Yog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudha Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2001
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Biography
File Size14 MB
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