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जैन एवं बौद्ध योग : एक तुलनात्मक अध्ययन
विपश्यना में समानता भगवान् बुद्ध के इस कथन से स्पष्ट होता है कि “तू दो के आगे धर्मों (शमथ और विपश्यना) की भावना कर। ये दोनों तेरे लिए अनेक धातुओं की तह तक पहुँचने में सहायक होंगे।"२१८ किन्तु कभी-कभी अनित्य, दु:ख एवं अनात्म स्वभाव को जानने से विपश्यना होती है और तत्पश्चात् चित्त की एकाग्रता होने से शमथ । परन्तु व्यवहार में लौकिक पुरुष योग-साधना करते समय पहले शमथ की भावना करता है तत्पश्चात् विपश्यना की भावना करता है। किन्तु कभी ऐसी स्थिति आ जाती है कि व्यक्ति शमथ की साधना किये बिना ही विपश्यना द्वारा अर्हत्पद की प्राप्ति कर लेता है। शमथ को आधार बनाकर साधना करनेवाला योगी ‘शमथयानिक' तथा विपश्यना की भावना करनेवाला 'विपश्यनायानिक' कहलाता है।२१९ शमथ को लौकिक समाधि कहा गया है
और विपश्यना को लोकोत्तर, क्योंकि विपश्यना का आलम्बन लौकिक कर्मस्थान नहीं होता।
विपश्यना प्रज्ञा का मार्ग है। विपश्यना का सामान्य अर्थ होता है- विशेष रूप से देखना। विपश्यना की भावना में साधक क्षण-क्षण में उत्पन्न एवं नष्ट होनेवाले नाम-रूप धर्मों के अनित्य स्वभाव को जानता है। फलत: उसे यह ज्ञान हो जाता है कि जो अनित्य है वह दुःखरूप है, अनात्म है। इस तरह साधक जब नाम-रूप धर्मों के अनित्य, दुःख और अनात्म स्वरूप को विशेष रूप में देखने लगता है तब उसका ज्ञान विपश्यना कहलाता है।२२०
जैसा कि बौद्ध दर्शन की मान्यता है कि आत्मा का अस्तित्व मानना ही सभी अनर्थों की जड़ है। आत्मा के कारण ही मनुष्य बन्धनों में फंसता है। भगवान् बुद्ध ने कहा है- जो यह मेरी आत्मा अनुभव करनेवाली है, अनुभव का विषय है और जहाँ-तहाँ अपने बुरे कर्मों के विषयों का अनुभव करती है, यह मेरी आत्मा नित्य, ध्रुव, शाश्वत तथा अपरिवर्तनशील है, अनन्त वर्षों तक वैसी ही रहेगी! हे भिक्षुओं, यह भावना बिल्कुल बाल धर्म है।२२१ अत: जो साधक शरीर में आत्मा की सत्ता को स्वीकार करता है उसकी दृष्टि कभी भी विशुद्ध नहीं हो सकती है। शरीर नाम- रूपात्मक है (रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार और विज्ञान)। इसलिए नाम और रूप विकार को प्राप्त होने के कारण अनित्य है। अनित्य के कारण दु:ख है। अत: अनित्य एवं दुःख में 'यह मेरा है, यह मैं हूँ' ऐसा भाव किया जाता है। जब साधक इसी नाम और रूप को स्पष्ट रूप से देखने में समर्थ हो जाता है तब उसके अन्दर से आत्मा के अस्तित्व की मान्यता समाप्त हो जाती है और वह पूर्ण विपश्यना भावना को प्राप्त कर लेता है। विपश्यना भावना के अन्तर्गत सात प्रकार की विशुद्धियाँ करनी पड़ती हैं जो निम्न प्रकार है- (१) शीलविशुद्धि, (२)
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