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________________ ७२ जैन एवं बौद्ध योग : एक तुलनात्मक अध्ययन गण से यहाँ अभिप्राय समूह से है। कर्म- कर्मस्थान ग्रहण करने के लिए भिक्षु को कार्यपूर्ण करके जाना चाहिए, यदि कार्य अधिक मात्रा में शेष रह गया हो तो संघहारक भिक्षुओं को सौंप देना चाहिए। यदि ऐसा भी नहीं हो पाया तो संघ छोड़कर चल देना चाहिए।२१३ मार्ग- कहीं कुछ पाने की इच्छा या किसी की प्रव्रज्या में शामिल होने की इच्छा समाधि में विघ्न उपस्थित करतीहै। अत: भिक्षु को सर्वप्रथम गन्तव्य स्थल पर जाकर इच्छा को पूर्ण करना चाहिए। ज्ञाति- आचार्य, उपाध्याय, माता-पिता आदि को ज्ञाति कहते हैं। इनके रहने के कारण समाधि में विघ्न उपस्थित होता है। आबाध, ग्रन्थ एवं ऋद्धि-इन सबके कारण भी अन्तराय उपस्थित होता है। उपर्युक्त विघ्नों का निवारण करने के पश्चात् ही समाधि-साधना में प्रवेश करना चाहिए। यहाँ यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि ऋद्धि से विपश्यना भावना में अन्तराय आती है, समाधि में नहीं। समाधि में उपर्युक्त नौ विघ्न ही उपस्थित होते हैं। अत: साधक को इन का निवारण करना चाहिए। कल्याण-मित्र की सेवा विघ्नों का उच्छेद कर परिबोधों से दूर रहकर कर्मस्थान की प्राप्ति के लिए कल्याण-मित्र के पास जाकर उसकी पर्येषणा करनी चाहिए। कल्याण-मित्र के समीप अपनी चर्या के अनुकूल किसी कर्मस्थान को ग्रहण कर उसे निमित्त बनाकर पूर्व नियमावली से समाधि भावना का अभ्यास करना चाहिए। कर्मस्थान के दायक को कल्याण-मित्र कहा गया है। कल्याण-मित्र के लक्षण को बताते हुए अंगुत्तरनिकाय में कहा गया है कि वह एकान्तप्रिय, हितैषी, गम्भीर कथा कहनेवाला तथा अनेक गुणों से युक्त होता है।२१४ भगवान् बुद्ध ने स्वयं अपने-आपको कल्याण-मित्र माना है।२१५ ऐसे ही कल्याण-मित्र के पास जाकर कर्मस्थान ग्रहण करना चाहिए। यदि आचार्य बड़े हों तो उनकी वन्दना करनी चाहिए और यदि छोटे हों तो उन्हें पात्र-चीवर ग्रहण नहीं करने देना चाहिए। उनकी भी सेवा उसी प्रकार करनी चाहिए जैसे अन्तेवासी अपने आचार्य की सेवा करता है। सेवा से प्रसन्न होकर आचार्य जब आने का कारण पूछे, तभी आने का प्रयोजन बताना चाहिए। यदि न पूछे तो अवसर देखकर स्वयं कह देना चाहिए। इस तरह प्रसन्न होकर आचार्य भिक्षु की चर्या को ठीक से समझकर उसके अनुसार उचित कर्मस्थान की गम्भीर शिक्षा देते हैं। साधना में चर्याभेद का अत्यधिक महत्त्व है। चर्या का अभिप्राय है प्रकृति, अर्थात् किस व्यक्ति की कैसी प्रकृति है? चर्या (प्रकृति) की अपेक्षा से व्यक्ति के छः प्रकार२१६ बताये गये हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002120
Book TitleJain evam Bauddh Yog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudha Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2001
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Biography
File Size14 MB
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