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________________ योग की अवधारणा : जैन एवं बौद्ध कहलाती है । २८ आहार चार प्रकार के होते हैं- कवलीहार, स्पर्शाहार, मनोसंचेतनाहार तथा विज्ञानाहार। इनमें कवलीहार कर्मस्थान सिद्ध होने पर साधक की रस सम्बन्धी तृष्णा नष्ट हो जाती है। फलतः वह रसास्वादन की दृष्टि से अपने शरीर के लिए आहार ग्रहण करता है। जिससे उसमें काम और राग का नाश होता है तथा कायगता स्मृति उत्पन्न होती है। २०९ चतुर्धातु व्यवस्था स्कन्ध में पुद्गल, सत्व, अहम् आदि संज्ञायें नष्ट कर 'यह शरीर चार महाभूतों का समुदाय है' इस प्रकार का निश्चय तथा निर्धारण करनेवाला ज्ञान चतुर्धातु व्यवस्थापन कर्मस्थान है। २१० इस प्रकार योग से सम्बन्धित चालीस कर्मस्थान बताये गये हैं, किन्तु उपर्युक्त चालीस कर्मस्थानों का सम्बन्ध मुख्य रूप से दो ही समाधि से है- उपचार और अर्पणा समाधि। चालीस में से दस - बुद्धानुस्मृति, धर्मानुस्मृति, संघानुस्मृति, शीलानुस्मृति, त्यागानुस्मृति, देवतानुस्मृति, मरणानुस्मृति, उपशमानुस्मृति, आहार के प्रतिकूलसंज्ञा तथा चतुर्धातु व्यवस्था का सम्बन्ध उपचार समाधि से है, क्योंकि इन अवस्थाओं में साधक का चित्त अस्थिर रहता है। वह कभी निमित्त को आलम्बन बनाता है तो कभी भवांग में अवतीर्ण हो जाता है। शेष तीस कर्मस्थानों का सम्बन्ध अर्पणा समाधि से है। विघ्न परिहार - ७१ परिशुद्धशील में अच्छी तरह से प्रतिष्ठित होकर सर्वप्रथम साधक को विघ्नों का निवारण करना चाहिए। विसुद्धिमग्गो में स्पष्ट कहा गया है कि कर्मस्थान देनेवाले कल्याण मित्र के पास जाकर अपनी चर्या के अनुसार उपर्युक्त चालीस कर्मस्थानों में से किसी एक कर्मस्थान को ग्रहण कर योग्य विहार में रहते हुए छोटे-छोटे विघ्नों को दूर करके सम्पूर्ण विधान का पालन करते हुए समाधि की भावना करनी चाहिए । २११ दस विघ्न निम्न हैंआवास, कुल, लाभ, गण, कर्म, मार्ग, ज्ञाति, आबाध, ग्रंथ एवं ऋद्धि । २१२ आवास- किसी कारण से आवास से लगाव का होना भिक्षु के लिए विघ्नकारक होता है। कुल - भिक्षु का अपने कुल को छोड़कर अन्य किसी भी कुल से लगाव का होना या सम्बन्ध रखना विघ्नकारक है। लाभ- चीवर, पिण्डपात, शयनासन, ग्लानप्रत्ययभैषज्य आदि के प्रति लाभ का लोभ करना साधक के लिए विघ्नकारक होता है। गण- गण में रहना भिक्षु के लिए लाभप्रद नहीं है, क्योंकि गण में रहने के कारण लोग कुछ न कुछ पूछने के लिए आते रहते हैं जिससे समाधि की भावना उसके लिए कठिन हो जाती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002120
Book TitleJain evam Bauddh Yog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudha Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2001
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Biography
File Size14 MB
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