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योग की अवधारणा : जैन एवं बौद्ध
८. इसके अन्तर्गत साधक स्थूल - चित्त - संस्कार का निरोध करते हुए श्वास छोड़ता और ग्रहण करता है।
९. इस प्रक्रिया में साधक चारों ध्यान द्वारा चित्त का अनुभव करते हुए श्वास लेना और छोड़ना सीखता है।
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१०. समाधि और विपश्यना द्वारा चित्त प्रमुदित होता है, अतः चित्त को प्रमुदित करते हुए श्वास छोड़ना या लेना सीखता है।
११. इस प्रकरण में साधक प्रथम ध्यानादि द्वारा चित्त को आलम्बन में समरूप से अवस्थित करते हुए श्वास छोड़ना और लेना सीखता है।
१२. इस प्रकरण के अन्तर्गत प्रथम ध्यान द्वारा विघ्नों (नीवरण) से चित्त को मुक्त कर, द्वितीय ध्यान द्वारा वितर्क-विचार से मुक्तकर, तृतीय ध्यान द्वारा प्रीति से मुक्तकर, चतुर्थ ध्यान द्वारा सुख-दुःख से चित्त को विमुक्तकर साधक श्वास छोड़ने और श्वास लेने का अभ्यास करता है ।
१३. इसमें साधक अनित्य ज्ञान के साथ श्वास छोड़ना और श्वास लेना सीखता है। १४. इसमें साधक विराग- ज्ञान के साथ श्वास छोड़ना और श्वास लेना सीखता है। १५. इसमें साधक निरोधानुपश्यना से समन्वागत हो श्वास छोड़ना और श्वास लेना सीखता है।
१६. इस अन्तिम प्रकरण में साधक प्रतिनिसर्गानुपश्यना से समन्वागत हो श्वास छोड़ना - लेना सीखता है।
उपर्युक्त १६ प्रकारों में चार-चार प्रकारों का एक वर्ग है जिसमें अन्तिम वर्ग उपासना की रीति से उपदिष्ट हुआ है, शेष तीन वर्ग शमथ और विपश्यना दोनों रीतियों से उपदिष्ट हुआ है। २०६
चार ब्रह्मविचार / विहार
सत्पुरुषों का उत्तम विहार ब्रह्म विहार कहलाता है । चित्तशुद्धि का यह व्यावहारिक सिद्धान्त है। इसके चार प्रकार हैं- मैत्री, करुणा, मुदिता और उपेक्षा ।
मैत्री - दुःखी सत्वों के प्रति स्नेह करनेवाले धर्म को मैत्री कहते हैं। करुणादूसरों के दुःखों का अपनयन करने को करुणा कहते हैं । मुदिता - सुखी सत्त्वों को देखकर
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