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________________ योग की अवधारणा : जैन एवं बौद्ध कर आलम्बन के स्वभाव को स्पष्ट रूप में प्रकाशित करती है।१८२ अत: कहा जा सकता है कि प्रज्ञा सत्य को यथार्थ रूप में जतानेवाली विशिष्ट प्रक्रिया है। कहीं-कहीं प्रज्ञा को विपश्यना भी कहा गया है। प्रज्ञा का लक्षण बताते हुए कुछ स्थानों पर कुशल चित्त से सम्प्रयुक्त विपश्यना-ज्ञान को प्रज्ञा कहा गया है।१८३ प्रज्ञा के प्रकार .. विकल्पों के आधार पर बौद्ध ग्रन्थों में प्रज्ञा के कई प्रकार किये गये हैं, यथाएकविध प्रज्ञा, द्विविध प्रज्ञा, त्रिविध प्रज्ञा, चतुर्विध प्रज्ञा, पंचविध प्रज्ञा आदि। एकविध प्रज्ञा वस्तु धर्म के स्वभाव की तह तक पहुँचना मात्र एकविध प्रज्ञा होती है। प्रज्ञा का कार्य मोहान्धकार का विनाश कर नामरूप का ज्ञान प्राप्त कराना है। अतः प्रज्ञा की भावना विकसित करनेवाले भिक्षुओं को समाधि विकसित करने का उपदेश दिया गया है।१८४ द्विविध प्रज्ञा द्विविध प्रज्ञा में अनेक प्रकार के विकल्पों का उल्लेख मिलता है। जिनमें से कुछ प्रकार निम्न हैं लौकिक-लोकोत्तर प्रज्ञा- काम, रूप एवं अरूप भूमियों में धर्मों को विशेष रूप से जानना लौकिक प्रज्ञा और इनसे इतर अर्थात् लोकोत्तर मार्ग से युक्त प्रज्ञा लोकोत्तर प्रज्ञा है। सास्रव-अनास्रव प्रज्ञा- चित्तमल को आस्रव कहते हैं। आस्रव के भी चार प्रकार हैं- कामास्रव, भवास्रव, दृष्टि आस्रव तथा अविद्यास्रव। इन्द्रियजनित सुख के प्रति आसक्ति कामास्त्रव, रूपारूप लोक में उत्पन्न होने की इच्छा भवास्रव, दृष्टियों के प्रति अनुराग दृष्टि-आस्रव और आर्यसत्य तथा प्रतीत्यसमुत्पाद का अज्ञान अविद्यास्रव कहलाती है।१८५ इन आस्रवों से युक्त प्रज्ञा सास्त्रव कहलाती है और इनसे रहित प्रज्ञा अनास्रव। नाम-रूप का विनिश्चयिका प्रज्ञा- जब प्रज्ञा वेदना, संज्ञा, संस्कार एवं विज्ञान का परीक्षण कर उसके विषय का निश्चय करती है तब नाम-विनिश्चयिका प्रज्ञा कहलाती है और जब रूप का निश्चय करती है तब वह रूप-विनिश्चयिका प्रज्ञा के नाम से जानी जाती है।१८६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002120
Book TitleJain evam Bauddh Yog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudha Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2001
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Biography
File Size14 MB
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