________________
६२
जैन एवं बौद्ध योग : एक तुलनात्मक अध्ययन
प्रज्ञा
भगवान् बुद्ध द्वारा प्रतिपादित त्रिविधयोग में प्रज्ञा अन्तिम सोपान है। प्रज्ञा की उपलब्धि के साथ ही बौद्ध योग-साधना पूर्ण हो जाती है। अट्ठसालिनी में कहा गया है कि आत्मा, जगत आदि धर्मों को अनित्य आदि प्रकारों से जानना प्रज्ञा है। १७९ दूसरे शब्दों में अज्ञान को नष्ट कर वास्तविक स्वरूप को दिखा देना ही प्रज्ञा का लक्षण है।१८० प्रज्ञा से अविद्या का नाश होता है और सारे क्लेश मिट जाते हैं। प्रज्ञा के गुण-धर्म को निरूपित करते हुए विज्ञानभिक्षु ने कहा है
१. प्रज्ञा एक धर्मवीथी है, जिसके आलोक में सारी व्यथाएँ दूर होती हैं। २. प्रज्ञा एक दर्पण है, जो अकेले ही तीक्ष्णता के साथ विशुद्धमार्ग दिखाती है। ३. प्रज्ञा से समाधान होता है और सब प्रकार के अनुभव प्रकाशित होते हैं। ४. प्रज्ञा असीम है, जो आपके अनुभवों को व्यापक बनाती है। ५. प्रज्ञा की रश्मियों से आपका सारा मानस बिना साबुन के धुल जाता है। ६. प्रज्ञा विशोकिनी है अर्थात शोक दूर करती है। ७. प्रज्ञा निमोहिनी है अर्थात् मोह का निरसन करती है। ८. प्रज्ञा सम्मोहिनी है और उसमें समता में स्थित करा देने की क्षमता है। ९. प्रज्ञा विरामिनी है, जो राग-द्वेष मिटा देने का सामर्थ्य रखती है। १०. प्रज्ञा समबला है, जो हानि और लाभ में मन को सम रखती है और
उसका सन्तुलन बनाए रखती है। ११. प्रज्ञा एकान्तिका है जो शून्यता दिखाकर मन को सुन्दर बनाती है। १२. प्रज्ञा प्रभा है, जो मैत्री, मंगल की आभा बिखेरती है। १३. प्रज्ञा सुमन है, जिसकी सुरभि से व्यक्तित्व सुगन्धित हो उठता है। १४. प्रज्ञा धरित्रि है, जिससे जीवन धीर-गम्भीर होकर उच्छृङ्खलता से रहित हो
जाता है। १५. प्रज्ञा वाहिका है, जो अंतर्मन के भीतर वाहन का काम करती है। १६. प्रज्ञा महाबला है, जो अन्तर्बोध में बैठकर समाहित हो जाती है।१८१
अभिधम्मत्थसंगहो में कहा गया है कि अविद्या स्कन्धों का ज्ञान न होने देने के कारण अन्धकार की भाँति होती है, जबकि प्रज्ञा उस अविद्यारूपी अन्धकार का विनाश
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org