________________
योग की अवधारणा : ज़ैन एवं बौद्ध
६१
खलुपच्छाभत्तिकांग- जो साधक अतिरिक्त भोजन का त्याग करता है उसके इस शील को खलुपच्छाभत्तिकांग कहते हैं। इससे संग्रहवृत्ति का नाश होता है।
आरण्यकांग- जो गाँव या शहर के शयनासन को त्यागकर अरण्य (वन) में निवास करता है, उसके इस शील को आरण्यकांग कहा जाता है। इसके पालन से योगी भयरहित, शान्तचित्त एवं एकान्तसुख सम्पन्न होता है । १७६
वृक्षमूलिकांग- घर या महल को छोड़कर जो योगी वृक्ष के नीचे के स्थान को शयनासन बनाता है, उसके इस शील को वृक्षमूलिकांग कहते हैं । अनित्यता का चिन्तन एवं तृष्णा का उच्छेद इसका फल माना गया है।
अभ्यवकाशिकांग- जब साधक घर, वृक्ष आदि को त्यागकर खुले स्थान पर रहता है, तो उसका यह आचार अभ्यवकाशिकांग कहलाता है। इस धुताङ्ग से साधक में अल्पेच्छ एवं संतोषवृत्ति में वृद्धि होती है । १७७
श्मशानिकांग- जो योगी श्मशान में निवास करता है उसे श्मशानिक कहा जाता है और उसके द्वारा ग्रहण किया गया आचार श्मशानिकांग कहलाता है।
यथासंस्तारिकांग - शयनासन का त्यागकर जो उपलब्ध हो उससे संतुष्ट होना अर्थात् योगी को जो शयनासन यह कहकर दिया जाता है कि 'यह तेरे लिए हैं उसी में सन्तोष करना यथासंस्तारिक कहलाता है और उसके आचरण को यथासंस्तारिकांग कहते हैं। इसमें हीन-उत्तम, अनुरोध - विरोध आदि भावों का विनाश होता है, अल्पेच्छ गुण विकसित होता है।
नैषद्यकांग- शयनासन का त्यागकर बैठे हुए ही अपनी साधना करना नैषद्यक कहलाता है और उसके आचार को नैषद्यकांग कहते हैं। इसको ग्रहण करने से शय्यासुख से उत्पन्न चित्तबन्धन का विनाश होता है। १७८
इस प्रकार धुताङ्ग के उपर्युक्त तेरह प्रकारों के पालन से अल्पेच्छा, सन्तुष्टिभाव, प्रविवेक और ज्ञान का विकास होता है, जिससे प्रत्ययसंनिश्रित शील परिशुद्ध होता है। धुताङ्ग के इन तेरह भेदों में से चार - आरण्यकांग, खलुपच्छाभत्तिकांग, अभ्यवकाशिकांग, वृक्षमूलिकांग का भिक्षुणियों के लिए निषेध है। अत: उनके लिए आठ धुताङ्ग ही हैं।
समाधि - चित्त की एकाग्रता को समाधि कहते हैं । समाधि के विषय में पूर्व में चर्चा की जा चुकी है। अतः पुनः यहाँ चर्चा करना उचित नहीं जान पड़ता है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org