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जैन एवं बौद्ध योग : एक तुलनात्मक अध्ययन
और जीवन के प्रति निर्ममत्व तथा विपश्यना भावना की प्राप्ति भी अपेक्षित है। इसकी पूर्ति के लिए बौद्धधर्म में तेरह धुताङ्गों के पालन को उपयोगी बताया गया है, क्योंकि धुताङ्गों से अल्पेच्छता, संतुष्टि आदि गुणों का विकास होता है। धुताङ्गों के तेरह प्रकार निम्नलिखित हैं
पांशुकूलिकांग- जो कपड़ा धूल के समान छिन्न-भिन्न हो या धूल के समान कुत्सित अवस्था को प्राप्त हो, उस कपड़े को पांशुकूल कहा जाता है। जो इस प्रकार के कपड़े को धारण करता है उसे पांशुकूलिक कहते हैं। अत: पांशुकूलिक का अंग पांशुकूलिकांग कहलाता है।१७२ पांशुकूलिक चीवर को काम को दग्ध करनेवाला माना गया है। १७३ इस नियम को ग्रहण करनेवाला साधक वस्त्र के विषय में अल्पेच्छता और संतुष्टि सम्पन्न हो जाता है।
चीवरिकांग-संघाटी, अन्तरवासक तथा उत्तरासंग-ये चीवर (वस्त्र ) के तीन प्रकार हैं। जो योगी इन तीन वस्त्रों को ग्रहण करने का व्रत लेता है उसका शील त्रैचीवरिकांग कहलाता है। इससे लोभादि दोषों का विनाश होता है।
पिण्डपातिकांग- पिण्डपातिकांग का अर्थ होता है- भिक्षावृत्ति के द्वारा उदरपूर्ति करना। अत: भिक्षा के लिए भ्रमण का शील धारण करनेवाले योगी के शील को पिण्डपातिकांग कहते हैं। पिण्डपात ग्रहण करनेवाले भिक्षु से देवता प्रसन्न रहते हैं। बौद्ध भिक्षु के लिए उद्देश्य भोजन, निमन्त्रण, प्रतिपदा भोजन, आगन्तुक भोजन, कृमिक भोजन आदि चौदह प्रकार के भोजन निषिद्ध हैं। इस धुताङ्ग को ग्रहण करनेवाला आहार लोलुपता से रहित तथा अल्पेच्छ गुण से सम्पन्न होता है।
सापदानचारिकांग- यदि योगी बिना अन्तर किये प्रत्येक घर से भिक्षा ग्रहण करता है तो उसके इस शील को सापदानचारिकांग कहते हैं। इस शील को धारण करनेवाला समान अनुकम्पा तथा संतोष आदि गणों से सम्पन्न होता है तथा सर्वत्र सौम्य एवं अनासक्त रहता है।१७४
एकासनिकांग- यथायोग्य एक ही आसन पर बैठकर भोजन करनेवाले योगी का शील एकासनिकांग कहलाता है। इस धुताङ्ग के पालन से स्फूर्ति, बल, अरसास्वादन आदि गुणों की व्युत्पत्ति होती है।१५ फलत: वह सुखपूर्वक जीवनयापन करता है और उसकी स्फूर्ति बनी रहती है।
पात्रपिण्डिकांग- दूसरे बर्तन (पात्र) को छोड़कर जब योगी एक ही पात्र में प्राप्त भोजन को ग्रहण करता है तो उसके इस शील को पात्रपिण्डिकांग कहते हैं।
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