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योग की अवधारणा : जैन एवं बौद्ध
न बनवाना।
६. बीमार न होने पर लोगों से कहकर सूप या पका चावल न खाना।
इसे इस प्रकार भी कहा जा सकता है कि किसी को आश्चर्य में डालना, ठगबाजी करना, अपने को या दायक को बढ़ा-चढ़ाकर कहना जिससे वह कुछ दे, अपने लाभ के लिए दूसरों को बुरा-भला कहना,लोभ से लाभ को ढूंढ़ना इत्यादि बुरे कर्मों से होनेवाली आजीविका से विरत होना-आजीवपारिशुद्धिशील है। प्रत्ययसंनिश्रितशील
वस्त्र (चीवर), भिक्षान्न (पिण्डपात), शयनासन, ग्लान-प्रत्यय-भैषज्य–ये चार प्रत्यय माने गये हैं। इन चार प्रत्ययों पर भली-भांति विचार करके सेवन करने को प्रत्ययसंनिश्रितशील कहा जाता है। चूंकि इनके सहारे परिभोग करते हुए प्राणी चलते हैं, प्रवर्तित होते हैं, जीवित रहते हैं, इसलिए इन्हें प्रत्यय कहा गया है। आजीवपारिशुद्धिशीलपूर्वक प्राप्त चीवरादि चार प्रत्ययों का सेवन करते समय यदि उचित विचार नहीं किया जाय तो ये प्रत्यय साधना में बाधक सिद्ध होते हैं। अत: साधक को चाहिए कि प्रत्ययों के सेवन करने के पूर्व उनके विषय में पूर्वापर विचार कर ले।
इस प्रकार चार शुद्धिशीलों का शुद्ध रूप से पालन करने पर शील की विशुद्धि कायम रहती है। उपर्युक्त चारों शील में प्रातिमोक्षसंवरशील श्रद्धाप्रधान, इन्द्रियसंवरशील स्मृतिप्रधान, आजीवपरिशुद्धिशील वीर्यप्रधान तथा प्रत्यय संनिश्रितशील प्रज्ञाप्रधानशील है। इन चार शीलों में किसी प्रकार की विकृति आ जाने पर देशना, संवर, पर्येष्टि, प्रत्यवेक्षण आदि चार शुद्धि उपायों का विधान है।२७० प्रातिमोक्षसंवरशील में आयी हुई विकृति को साथ रह रहे भिक्षु को बता देना देशनाशुद्धि है। इन्द्रियसंवरशील में विकृति उत्पन्न होने पर दृढ़ निश्चय करना कि पुन: ऐसा नहीं होगा, संवरशद्धि है। आजीव पारिशुद्धिशील में विकृति आ जाने पर धर्मपूर्वक आजीव में संलग्न रहना पर्येष्टि शुद्धि है तथा प्रत्ययसंनिश्रितशील में विकृति आ जाने पर प्रज्ञापूर्वक उसे दूर करना प्रत्यवेक्षण शुद्धि है। धुताङ्गः
क्लेशों को धुन कर रख देने वाले ज्ञानांग धुताङ्ग कहे जाते हैं।१७१ धुताङ्ग के आचरण से साधक सभी प्रकार के विकारों को धो डालता है। धुताङ्ग को ज्ञानाङ्ग भी कहते हैं। शील की परिशुद्धि के लिए योगी द्वारा लोकामिष (लाभ-सत्कार) का परित्याग, शरीर .
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