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________________ जैन एवं बौद्ध योग : एक तुलनात्मक अध्ययन है । आचार और गोचर की सम्पन्नता ही भिक्षु की विशेषता है । आचार अर्थात् काय तथा वचन से नियमों का उल्लंघन न करना तथा गोचर यानी भिक्षा आदि के लिए जाने योग्य स्थान।१६६ अतः साधक को कोई भी ऐसा आचरण नहीं करना चाहिए जिससे संघ के नियमों का उल्लंघन हो । यथा-संघ में खड़े होकर बोलना, हाथ झाड़-झाड़कर बोलना, अन्य भिक्षुओं के बिना जूते पहनकर टहलते समय जूते पहनकर टहलना, नीचे टहलते समय ऊपर टहलना, भिक्षुओं से सटकर बैठना, घाट पर नहाते समय, गृहस्थों के घरों को जाते समय स्थविर भिक्षुओं के प्रति असम्मान - प्रदर्शन करना आदि अनाचार के द्योतक हैं, जिनसे संघ के नियमों का उल्लंघन होता है। इन्द्रियसंवरशील आँख, कान, नाक आदि इन्द्रियों का निग्रह करनेवाला शील इन्द्रियसंवर शील कहलाता है। इसे हम दूसरी भाषा में कह सकते हैं कि आँख से रूप को देखकर, कान से शब्द को सुनकर, नाक से गन्ध को सूँघकर, जीभ से रस को चखकर, काय से स्पर्श करके, मन से धर्म को जानकर आस्रव के निमित्त और अनुव्यंजनों को न ग्रहण करना, उनके संवर के लिए सुरक्षा करना ही इन्द्रियसंवर शील कहलाता है। इस प्रकार योगी विषयों के निमित्त एवं अनुव्यंजनों को न ग्रहण कर स्मृतिपूर्वक अपने अन्दर विषयजन्य राग-द्वेष आदि विकारों को नहीं आने देता है। जिसके परिणामस्वरूप इन्द्रियों से उत्पन्न विकारों से वह सुरक्षित हो जाता है । १६७ यह शील स्मृतिप्रधान होता है। अतः इसमें स्मृति में दृढ़ता न होने से साधक एकान्त में रहते हुए भी इन्द्रियसंवरशील से च्युत हो सकता है। १६८ आजीवपारिशुद्धिशील ५८ आजीविका के लिए किया जानेवाला कायिक एवं वाचिक कार्य आजीव कहलाता आजीव की शुद्धता में जो शील कारण रूप होता है उसे आजीवपारिशुद्धिशील कहते हैं । आजीव से सम्बन्धित छः शिक्षापदों १६९ का उल्लेख बौद्ध साहित्य में मिलता है १. आजीव के लिए अविद्यमान, अलौकिक शक्ति के भरोसे न रहना । २. स्त्री-पुरुष का संदेश एक-दूसरे के पास न पहुँचाना। ३. जो तेरे विहार में रहता है वह अर्हत् है - ऐसे शब्द का प्रयोग न करना । ४. बीमार न होने पर इच्छानुरूप अपने लिए उत्तम भोजन न तैयार करवाना। भिक्षुणी द्वारा बीमार न होने पर दूसरे से कहकर अपने लिए उत्तम भोजन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002120
Book TitleJain evam Bauddh Yog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudha Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2001
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Biography
File Size14 MB
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