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________________ योग की अवधारणा : जैन एवं बौद्ध १. स्थान, २ . ऊर्ण (वर्ण) ३. अर्थ, ४. आलम्बन और ५. अनालम्बन । इनमें से प्रथम दो (स्थान और ऊर्ण) प्रकार के साधन कर्म - योग के अन्तर्गत आते हैं, क्योंकि इनमें कायोत्सर्ग, आसन, तप, मंत्र, जप आदि क्रियाओं को करना पड़ता है। वस्तुतः ये सब आचारमीमांसा से सम्बन्धित माने गये हैं। बाद के तीन प्रकार के साधन ज्ञानयोग के अन्तर्गत आते हैं, क्योंकि इनमें क्रिया की अपेक्षा ज्ञान पर विशेष बल दिया गया है। आगे आचार्य ने इन पाँचों में से प्रत्येक के चार-चार भेद बतलाये हैं । इच्छा, प्रवृत्ति, स्थिरता और सिद्धि आदि । इस प्रकार योग के बीस भेद हो जाते हैं। अनालम्बन योग के सिद्ध हो जाने पर 'क्षपक श्रेणी' प्रारम्भ हो जाती है। फलतः साधक परम निर्वाण की प्राप्ति करता है। इसमें साधक के संस्कार इतने दृढ़ हो जाते हैं कि योगप्रवृत्ति करते समय शास्त्र को स्मरण करने की अपेक्षा ही नहीं रहती और समाधि की अवस्था प्राप्त हो जाती है । ११३ ये पाँचों योग उसी साधक को सधते हैं जो चारित्रमोहनीय के क्षयोपशम से अंशत: या सम्पूर्णतया चारित्रसम्पन्न होता है । ११४ ४५ आचार्य हरिभद्र सूरि के ही योगबिन्दु में पंच आयामी योग११५ का वर्णन मिलता है, जो उपर्युक्त पाँच प्रकारों से भिन्न है - १. अध्यात्म, २. भावना, ३. ध्यान, ४. समता और ५. वृत्ति। अपने सामर्थ्य के अनुसार महाव्रतों को, अणुव्रतों को स्वीकार कर मैत्री, करुणा आदि भावनाओं से युक्त तत्त्वार्थ चिन्तन-मनन करना अध्यात्म, अध्यात्म की एकाग्रतापूर्वक पुनरावर्तन भावना, सूक्ष्म चिन्तन की अवस्था ध्यान, इष्ट-अनिष्ट के प्रति समभाव रखना समता तथा शरीर और मन के सम्बन्ध से उत्पन्न होने वाली वृत्तियों की अत्यन्त क्षीणता वृति है । योग के तीन प्रकार उपर्युक्त पाँच प्रकार के योगों के अतिरिक्त तीन प्रकार के योगों का भी उल्लेख देखने को मिलता है। वे तीन इस प्रकार हैं - १. इच्छायोग २. शास्त्रयोग ३. सामर्थ्ययोग । इच्छायोग - अनुष्ठान करने की इच्छा का जाग्रत होना इच्छायोग कहलाता है। यद्यपि साधक अनुष्ठानों को क्रियान्वित करने के लिए प्रयत्नशील होता है, तथापि आलस्यवश उनको कार्यान्वित नहीं कर पाता । शास्त्रयोग - जिससे तात्त्विक बोध अर्थात् सम्यग्दृष्टि की प्राप्ति होती है उसे शास्त्रयोग कहते हैं। इसमें साधक आलस्य रहित एवं श्रद्धायुक्त होकर अनुष्ठानों का पालन करता है । १९६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002120
Book TitleJain evam Bauddh Yog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudha Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2001
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Biography
File Size14 MB
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