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जैन एवं बौद्ध योग : एक तुलनात्मक अध्ययन
(२) गण व्युत्सर्ग - सामान्यतया गण से समूह का अर्थ ग्रहण किया जाता है, किन्तु यहाँ गण एक या एकान्तता का बोधक है। साधना के निमित्त सामूहिक जीवन को छोड़कर एकान्त में अकेले साधना करना गण व्युत्सर्ग कहलाता है।
(३) उपधि व्युत्सर्ग - संयम-साधना में आवश्यक मर्यादानुसार वस्त्र, पात्र आदि मुनि जीवन के लिए आवश्यक वस्तुओं का त्याग करना या उनमें कमी करना, उपधि व्युत्सर्ग के नाम से जाना जाता है।
(४) भक्तपान व्यत्सर्ग - भोजन, पानी आदि का त्याग करना भक्तपान व्युत्सर्ग कहलाता है। यह अनशन का ही रूप है।
आभ्यन्तर व्युत्सर्ग के तीन रूप हैं -
(१) कषाय व्युत्सर्ग - क्रोध, मान, माया और लोभ इन चारों कषायों का परित्याग करना कषाय व्युत्सर्ग है।
(२) संसार व्युत्सर्ग - प्राणीमात्र के प्रति राग-द्वेष की प्रवृत्तियों को छोड़कर सबके प्रति समत्वभाव रखना संसार व्युत्सर्ग है।
(३) कर्म व्युत्सर्ग - आत्मा की मलिनता मन, वचन और शरीर की विविध प्रवृत्तियों को जन्म देती है। इस मलिनता का परित्याग करना शारीरिक, मानसिक एवं वाचिक प्रवृत्तियों का निरोध करना है। यही कर्म व्युत्सर्ग कहलाता है।
___ इस प्रकार हम देखते हैं कि अनशन से लेकर व्युत्सर्ग तक बारह तपों की एक अस्खलित श्रृंखला है। जैन धर्म की इस तप-साधना की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि दुर्बल से दुर्बल और सबल से सबल पुरुष भी अपनी शक्ति के अनुसार, बल और पुरुषार्थ के अनुसार इस तपोमार्ग की आराधना कर सकता है। छोटे से छोटा व्रत त्याग (चार या पांच घंटे का आहार त्याग) करके भी इस तप की आराधना प्रारम्भ की जा सकती है और फिर ऊनोदरी तो रोगी-भोगी-योगी आदि हर कोई कर सकता है। इस तरह तप की सरलतम साधना भी जैन परम्परा में बताई गयी है तथा धीरे-धीरे तन-मन सध जाने पर कठोर दीर्घ उपवास, ध्यान और कायोत्सर्ग तप की साधना द्वारा साधक को तप की उच्चतम चोटी पर पहुँचने की विधि भी कही गयी है। पंच आयामी योग
योगविंशिका १२ में साधन की अपेक्षा से योग के पाँच प्रकार बताये गये हैं -
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