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________________ योग की अवधारणा : जैन एवं बौद्ध अर्थ को शुद्ध रूप से ग्रहण करना, बिना विचारे न तो जल्दी-जल्दी पढ़ना और न अस्थान में रुक-रुककर पढ़ना तथा 'आदि' शब्द के पढ़ते हुए अक्षर या पद न छोड़ना आदि वाचना है।' १०४. प्रच्छना प्रच्छना पूछना, प्रश्न करना आदि अर्थ को ग्रहण करता है। ग्रंथ और अर्थ दोनों के विषय में क्या यह ऐसा है अथवा अन्यथा है, इस सन्देह को दूर करने के लिए अथवा 'यह ऐसा ही है' इस प्रकार से निश्चितता को दृढ़ करने के लिए प्रश्न करना प्रच्छना है। प्रश्न करना स्वाध्याय का मुख्य अंग है । " १०५ - ४३ अनुप्रेक्षा - जाने हुए या निश्चित हुए अर्थ का मन से जो बार-बार चिन्तन किया जाता है, वह अनुप्रेक्षा है। अनुप्रेक्षा के अन्तर्गत ही स्वाध्याय के लक्षण, अन्तर्जल्प रूप पाठ आते हैं। वाचना और अनुप्रेक्षा में अन्तर इतना है कि वाचना में बहिर्जल्प होता है तथा अनुप्रेक्षा में मन में ही पढ़ने या विचारने से अन्तर्जल्प होता है । १०६ १०७ आम्नाय- पढ़े हुए ग्रंथ का शुद्धतापूर्वक पुनः पुनः उच्चारण करना आम्नाय है। " धर्मकथा - देववन्दना के साथ मंगलपाठपूर्वक धर्म का उपदेश करना धर्मकथा कहलाता है। १०८ ध्यान तप मन की एकाग्र अवस्था का नाम ध्यान है। दूसरे शब्दों में चित्त की अवस्थाओं को किसी विषय पर केन्द्रित करना ध्यान है। ध्यान के चार भेद बताये गये हैं- आर्तध्यान, रौद्रध्यान, धर्मध्यान और शुक्लध्यान । प्रस्तुत पुस्तक में ध्यान पर एक स्वतंत्र अध्याय है, अतः इसकी चर्चा उसके अन्तर्गत की जायेगी । · व्युत्सर्ग तप व्युत्सर्ग का अर्थ होता है - त्यागना, छोड़ना आदि । विशिष्ट प्रकार का त्याग व्युत्सर्ग है । तत्त्वार्थराजवार्तिक में वर्णन आया है- नि:संगता, निर्भयता और जीवन की लालसा का त्याग ही व्युत्सर्ग है। १०९ सर्वार्थसिद्धि में अहंकार, ममकार आदि सभी उपाधियों के त्याग को व्युत्सर्ग कहा गया है। ११० व्युत्सर्ग के दो भेद हैं- बाह्य व्युत्सर्ग और आभ्यन्तर व्युत्सर्ग। १११ धन-धान्य, मकान, क्षेत्र आदि बाह्य पदार्थों की ममता का त्याग करना बाह्योपधि- व्युत्सर्ग कहलाता है और शरीर की ममता एवं काषायिक विकारों की तन्मयता का त्याग करना आभ्यन्तरोपधि व्युत्सर्ग। बाह्य व्युत्सर्ग के भी चार प्रकार माने गये हैं Jain Education International (१) शरीर व्युत्सर्ग - इसका दूसरा नाम कायोत्सर्ग है । कुछ समय के लिए शरीर से ममत्व को हटा लेना कायोत्सर्ग है। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002120
Book TitleJain evam Bauddh Yog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudha Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2001
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Biography
File Size14 MB
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