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________________ ३८ जैन एवं बौद्ध योग : एक तुलनात्मक अध्ययन अलग भेद एवं प्रभेद बताये गये हैं, किन्तु मूलत: आगमों में दो प्रकार के ही तप मिलते हैं- बाह्य तप एवं आभ्यन्तर तप।८० बाह्य तप का अर्थ है बाहर से दिखलाई देनेवाला तप, यथा-उपवास। उपवास का स्पष्ट प्रभाव शरीर पर दृष्टिगोचर होता है। कायक्लेश, अभिग्रह, भिक्षावृत्ति ये सब ऐसी विधियाँ है जो बाहर में स्पष्ट झलकती हैं। आभ्यन्तर तप का अर्थ है- अन्दर में चलनेवाली शुद्धि प्रक्रिया। इस तप का सम्बन्ध मन से अधिक रहता है। मन को परिमार्जित करना, सरल बनाना, एकाग्र करना, शुभ चिन्तन में लगाना आदि आभ्यन्तर तप की विधियाँ हैं, यथा-ध्यान, स्वाध्याय, विनय आदि। प्रायः ऐसा सुनने में आता है कि बाह्य तप साधारण है तथा आभ्यन्तर तप बड़ा है। परन्तु शास्त्रों में जो महत्त्व आभ्यन्तर तप का है वही महत्त्व बाह्य तप का भी है। जिस प्रकार एक ही पुस्तक के दो अध्याय होते हैं, एक ही सिक्के के दो पहलू होते हैं उसी प्रकार बाह्य एवं आभ्यन्तर तप भी तप के दो पहलू हैं। ऐसा नहीं है कि जैनधर्म केवल बाह्य तप का ही आग्रह करता है। यदि आभ्यन्तर तप न हो तो बाह्य तप की कोई सार्थकता नहीं है। आचार्य संघदास गणि ने कहा है- हम केवल अनशन आदि से कृश-दुर्बल-क्षीण शरीर की प्रशंसा करनेवाले नहीं हैं। वास्तव में तो वासना, कषाय और अहंकार को क्षीण करना चाहिए। जिसकी वासना क्षीण हो गयी हम उसी की प्रशंसा करेंगे।८१ इस प्रकार बाह्य और आभ्यन्तर एक-दूसरे के पूरक हैं। इन दोनों प्रकार के तपों का सम्यक् रूप से पालन करनेवाला पंडित मुनि शीघ्र ही सर्व संसार से मुक्त हो जाता है।८२ बाह्य तप तप के दो भेद करके प्रभेद रूप में दोनों के छ:-छ: भेद बताये गये हैं। बाह्य तप के छ: भेदों में उसके अन्तर्भेद भी अनेक हैं। बाह्य तप के छ: भेद८३ इस प्रकार हैं- (१) अनशन, (२) ऊनोदरी, (३) भिक्षाचारी, (४) रस-परित्याग, (५) कायक्लेश, (६) प्रतिसंलीनता। अनशन- अनशन का अर्थ होता है- अशन का त्याग। अशन आहार को कहते हैं। भोजन का त्याग करना अनशन है। अनशन से उपवास, निराहार आदि का भी अर्थ लिया जाता है। अनशन को सभी तपों में प्रथम स्थान दिया गया। क्यों? क्योंकि अनशन में भूख पर विजय करनी होती है और भूख ही संसार में दुर्जेय है। अनशन से बढ़कर कोई तप नहीं है। अनशन के दो भेद हैं- इत्वरिक और यावत्कत्थिका ५ इत्वरिक तप में समय की मर्यादा रहती है, निश्चित समय के पश्चात् भोजन की आकांक्षा रहने से इस तप को सावकांक्ष तप भी कहा जाता है। यावत्कत्थिक (मरणकाल) में जीवनपर्यन्त आहार का त्याग कर दिया जाता है, इसमें भोजन की कोई आकांक्षा शेष नहीं रहती। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002120
Book TitleJain evam Bauddh Yog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudha Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2001
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Biography
File Size14 MB
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