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________________ योग की अवधारणा : जैन एवं बौद्ध ३९ इसलिए इसे निरवकांक्ष तप भी कहा जाता है।६ यावत्कत्थिक को मरणकाल तप भी कहते हैं। व्याख्याप्रज्ञप्ति में कहा गया है कि आहार-त्याग एक दिन का भी हो सकता है और उत्कृष्ट छ: महीने का या जीवनपर्यन्त अर्थात् सामर्थ्य के अनुसार साधक लम्बी अवधि तक का भी अनशन कर सकता है। __ ऊनोदरी- अल्पाहार, परिमित आहार आदि शब्दों से ऊनोदरी का भाव प्रकट होता है। ऊनोदरी बाह्य तप का दूसरा भेद है जिसका अर्थ प्राय: 'कम खाना' से लिया जाता है। ऊन का अर्थ होता है- कम तथा उदर का अर्थ होता है- पेट। अर्थात् भोजन के समय पेट को खाली रखना, भूख से कम खाना ऊनोदरी है। भोजन का सर्वथा त्याग कर देना तो तप है ही, पर भोजन करने के लिए तैयार होकर भूख से कम खाना, खातेखाते रसना पर संयम कर लेना और स्वाद आते हए भोजन को बीच ही में छोड़ देना भी उतना ही दुष्कर है जितना की उपवास करना। भिक्षाचारी- भिक्षा का सीधा एवं सरल अर्थ होता है- याचना करना, माँगना। किन्तु सिर्फ माँगना मात्र ही तप नहीं होता। भिक्षाचारी का सही अर्थ होता है- नियमपूर्वक, पवित्र उद्देश्य से और शास्त्रसम्मत विधि-विधान के साथ आहार ग्रहण करना। इसे ही कहींकहीं शास्त्रों में गोचरी, मधुकरी और कहीं वृतिसंक्षेप या वृत्तिपरिसंख्यान के नाम से भी अभिहित किया गया है। रस-परित्याग- 'रस प्रीति विवर्धकं' अर्थात् जिसके कारण भोजन में, वस्तु में प्रीति उत्पन्न होती है उसे 'रस' कहते हैं। अत: दूध, घी, मक्खन, मधु आदि गरिष्ठ विकारवर्धक पदार्थों का त्याग करना रस-परित्याग कहलाता है।८ प्रतिदिन एक-एक रस का परित्याग भी किया जाता है। यह त्याग साधु भी कर सकता है तथा गृहस्थ भी। उपवास आदि तप की अपनी अलग-अलग काल मर्यादाएं हैं, किन्तु रस-परित्याग तप तो जीवन भर की सतत् साधना है। कायक्लेश- कायक्लेश का अर्थ है- शरीर को कष्ट देना। ठंडा, गर्मी या विविध आसनों द्वारा शरीर को कष्ट पहुँचाना काय-क्लेश तप है। कष्ट भी दो प्रकार का होता है- एक प्राकृतिक जो स्वयं अपने आप अनचाहे रूप में आ जाता है, यथा-सर्दी में शीत लहरें, गर्मी में लू के थपेड़े आदि। दूसरा कष्ट, जो उदीरणा करके साधक स्वत: - लेता है, यथा-कठोर आसन करना, ध्यान लगाकर स्थिर खड़े हो जाना आदि। साधक के जीवन में उक्त दोनों प्रकार के कष्ट आते हैं। परन्तु साधक कायक्लेश तप के द्वारा शरीर को इतना साध लेता है कि बाहर के कष्टों का उसके शरीर पर जल्दी असर नहीं होता जितना की सामान्य व्यक्तियों के शरीर पर होता है। साधना से सहने की क्षमता इतनी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002120
Book TitleJain evam Bauddh Yog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudha Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2001
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Biography
File Size14 MB
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