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________________ जैन एवं बौद्ध योग : एक तुलनात्मक अध्ययन ३६ व विचारकों के शब्दों में, उनकी भावनाओं में भी यह धारणा गूँजती रही है। तप सिर्फ हमारी अध्यात्म साधना का ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण जीव जगत का प्राणतत्त्व है । तप नैतिकता की शक्ति है, तप- शून्य नैतिकता खोखली है, तप नैतिकता की आत्मा है। भरत सिंह उपाध्याय के शब्दों में- “भारतीय संस्कृति में जो कुछ भी शाश्वत है, जो कुछ भी उद्दात्त एवं महत्त्वपूर्ण तत्त्व है, वह सब तपस्या से ही सम्भूत है, तपस्या से ही इस राष्ट्र का बल या ओज उत्पन्न हुआ है। .... तपस्या भारतीय दर्शन की ही नहीं, बल्कि उसके समस्त इतिहास की प्रस्तावना है... प्रत्येक चिन्तनशील प्रणाली चाहे वह आध्यात्मिक हो चाहे आधिभौतिक, सभी तपस्या की भावना से अनुप्राणित हैं... उसके वेद, वेदांग, दर्शन, पुराण, धर्मशास्त्र आदि सभी विद्या के क्षेत्र जीवन की साधना रूप तपस्या के एकनिष्ठ उपासक हैं"। ७" तप भारतीय साधना का प्राण है। जिस प्रकार शरीर में उष्मा जीवन के अस्तित्व का द्योतक है, उसी प्रकार साधना में तप भी उसके दिव्य अस्तित्व का बोध कराती है। भारतीय नैतिक जीवन या आचार-दर्शन में तप के महत्त्व को अधिक स्पष्ट करते हुए काका कालेलकर ने लिखा है - "बुद्धकालीन भिक्षुओं की तपश्चर्या के परिणामस्वरूप ही अशोक के साम्राज्य का और मौर्यकालीन संस्कृति का विस्तार हो पाया। शंकराचार्य की तपस्या से हिन्दू धर्म का संस्करण हुआ। महावीर की तपस्या से अहिंसा धर्म का प्रचार हुआ।......... बंगाल के चैतन्य महाप्रभु जो मुखशुद्धि के लिए एक हर्रे भी नहीं रखते थे, उन्हीं से बंगाल की वैष्णव संस्कृति विकसित हुई । ७१ - यह तो सत्य है कि भारतीय नैतिक विचारधाराओं व आचार दर्शनों का जन्म 'तपस्या' के गर्भ से हुआ, सभी उसी की गोद में पले और विकसित हुए हैं। भारतीय जीवन की हर साँस साधना का रूप होती है। यही कारण है कि भारत का चाहे व्यक्तिगत जीवन हो या पारिवारिक जीवन, सामाजिक जीवन हो या धार्मिक जीवन, सर्वत्र जीवनधारा में साधना की उर्मियाँ लहराती है, साधना का स्वर मुखरित होता रहता है। डॉ० सागरमल जैन के शब्दों में "जैन साधना समत्वयोग की साधना है और यही समत्वयोग आचरण के व्यावहारिक क्षेत्र में अहिंसा बन जाता है, यही अहिंसा निषेधात्मक साधना - क्षेत्र में संयम कही जाती है और संयम ही क्रियात्मक रूप में तप है । ७२ इसे दूसरे शब्दों में इस तरह कहा जा सकता है कि तप योग की एक ऐसी कड़ी है, जिससे साधक समस्त कर्मों की निर्जरा करने में समर्थ होता है। तप द्वारा ही कर्म-पाशों से साधक सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान तथा सम्यक् चारित्र को प्राप्त करता है। अतः यह ठीक ही कहा गया है कि तप भारतीय दर्शन-परम्परा की ही नहीं बल्कि उसके सम्पूर्ण इतिहास की प्रस्तावना है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002120
Book TitleJain evam Bauddh Yog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudha Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2001
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Biography
File Size14 MB
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