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जैन एवं बौद्ध योग : एक तुलनात्मक अध्ययन
उस शुद्धि के कारणभूत नियमों से है। वीतराग सर्वज्ञ प्रणीत षट् द्रव्य, सात तत्त्व, नौ पदार्थ, पंचास्तिकाय, इनका श्रद्धान्, इनके स्वरूप का ज्ञान और व्रतादि अनुष्ठानरूप आचरण व्यवहार मोक्षमार्ग है।६५ गृहस्थ और श्रमणधर्म की अपेक्षा से व्यवहारचारित्र का देशव्रती-चारित्र और सर्वव्रती-चारित्र दो रूपों में विभाजन किया गया है। देशव्रती-चारित्र का सम्बन्ध गृहस्थाचार से है जिसके अन्तर्गत अष्टमूलगुण, षटकर्म, बारह व्रत और ग्यारह प्रतिमाओं का पालन किया जाता है। श्वेताम्बर मान्यता में अष्टमूल गुणों के स्थान पर सप्तव्यसन त्याग एवं ३५ (पैतीस) मार्गानुसारी गुणों का विधान मिलता है। श्रमण आचार (सर्वव्रती चारित्र) के अन्तर्गत पंच महाव्रत, रात्रिभोजन का त्याग, पंच समिति, तीन गुप्ति, दश यतिधर्म, बारह अनुप्रेक्षाएँ, बाईस परीषह, अट्ठाईस मूलगुण, बावन अनाचार आदि का विवेचन देखने को मिलता है।
जैन ग्रन्थों में चारित्र का वर्गीकरण गृहस्थ एवं श्रमण धर्म के अतिरिक्त अन्य अपेक्षाओं से भी किया गया हैचारित्र के चार प्रकार
स्थानांग-६ में घट के प्रकारों को बताते हए आचरण की अपेक्षा से चारित्र के चार प्रकार किये गये हैं। घट के चार प्रकार निम्न हैं- (१) भिन्न अर्थात् फूटा हुआ (२) जर्जरित, (३) परिस्रावी और (४) अपरिस्रावी।
फूटे घट के समान- जब साधक धारण किये हुए महाव्रतों को सर्वथा भंग कर देता है तो उसका चारित्र फूटे हुए घड़े के समान हो जाता है, नैतिकता की दृष्टि से उसका कोई मूल्य नहीं रह जाता।
जर्जरित घट के समान- जब कोई साधक ऐसा कोई अपराध करता है जिसके कारण उसकी दीक्षा-पर्याय का छेद किया जाता है, तो उस साधक का चारित्र जर्जरित घट के समान कहलाता है।
परिस्रावी- जिस साधक के चारित्र में सूक्ष्म दोष होता है वह चारित्र परिस्रावी कहलाता है।
अपरिस्रावी- जिस साधक का चारित्र निर्दोष एवं निरतिचार होता है वह अपरिस्रावी कहलाता है। चारित्र के पाँच प्रकार
तत्त्वार्थसूत्र में चारित्र के पाँच प्रकार बताये गये हैं- (१) सामायिक चारित्र, (२)
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