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योग की अवधारणा : जैन एवं बौद्ध
आत्मा में यह मलिनता या अस्थिरता स्वाभाविक नहीं, वरन् वैभाविक है, जो बाह्य भौतिक एवं तज्जनित आन्तरिक कारणों से होता है। जैन दर्शन में इस मलिनता के कारण को कर्ममल कहा गया है। जिस प्रकार नीचे की ओर बहनेवाला पानी दबाव के कारण ऊपर चढ़ने लगता है, उसी प्रकार चित्त या आत्मा शुद्ध होते हुए भी कर्मों या बाह्यमलों से अशुद्ध हो जाती है। परन्तु जैसे ही बाह्य संयोगों से अलग होती है, अपने शुद्ध एवं स्वाभाविक रूप में आ जाती है। आत्मा अपने स्वाभाविक रूप में तात्त्विक दृष्टि से शुद्ध है। दरअसल सम्यक् चारित्र का कार्य ही है चित्त या आत्मा को इन संयोगों से अलग कर स्वाभाविक समत्व की दिशा में ले जाना । आचार्य कुन्दकुन्द के इस कथन से इसका समर्थन होता है कि वास्तव में चारित्र ही धर्म है, जो धर्म है वह समत्व है और मोह एवं क्षोभ से रहित आत्मा की शुद्ध दशा को प्राप्त करना समत्व है । ६३
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अतः आध्यात्मिक जीवन की पूर्णता के लिए श्रद्धा और ज्ञान के साथ-साथ चारित्र का होना भी आवश्यक है, क्योंकि सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान सम्यक् चारित्र के बिना पूर्णता को प्राप्त नहीं होते हैं। सम्यग्दर्शन परिकल्पना है, सम्यग्ज्ञान प्रयोग विधि है तथा चारित्र प्रयोग। इन तीनों के संयोग से ही सत्य का साक्षात्कार होता है। जैनागम में कहा भी गया है कि ज्ञान का सार आचार है और आचार का सार निर्वाण या परमार्थ की उपलब्धि है । ६४
चारित्र के प्रकार
जैन मान्यता के अनुसार चारित्र दो प्रकार के हैं- (१) व्यवहार चारित्र और (२) निश्चय चारित्र । आचरण का बाह्य पक्ष व्यवहार चारित्र तथा भव पक्ष या अन्तरात्मा पक्ष निश्चय चारित्र है।
चारित्र का निश्चय पक्ष
निश्चय चारित्र ही मुक्ति का सोपान है। जब साधक वासनाओं, कषायों तथा रागद्वेष से रहित हो विवेकपूर्ण आचरण करता है तब उसका वह आचरण निश्चय चारित्र कहलाता है। यह अप्रमत्त चेतना की अवस्था है जिसमें राग- -द्वेष, कषाय, विषयवासना, आलस्य और निद्रा आदि का अभाव होता है। अप्रमत्त चेतना में होनेवाले सभी कार्य शुद्ध माने गये हैं।
चारित्र का व्यवहार पक्ष
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चारित्र के व्यवहार पक्ष का सम्बन्ध हमारे मन, वचन और कर्म की शुद्धि तथा
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