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________________ योग की अवधारणा : जैन एवं बौद्ध है। सम्यग्दर्शन जैन आचार-व्यवस्था की आधारशिला है। सम्यग्दृष्टि, तत्त्वरुचि, तत्त्वश्रद्धा, विश्वास, प्रतीति, रुचि आदि इसके अनेक पर्याय हैं। बिना यथार्थ दृष्टिकोण के साधना नहीं हो सकती। साधक को वस्तुतत्त्व के प्रति दृष्टिकोण की यथार्थता जिन माध्यमों से प्राप्त होती है, वे दो प्रकार की हैं- (१) व्यक्ति या तो स्वयं तत्त्व साक्षात्कार करे या (२) उन ऋषियों के कथनों पर श्रद्धा करे जिन्होंने तत्त्व साक्षात्कार किया है। तत्त्वश्रद्धा तो एक विकल्प के रूप में जानी जाती है, क्योंकि वह तत्त्व साक्षात्कार का एक सोपान है। पंडित सुखलाल संघवी के शब्दों में- “तत्त्वश्रद्धा ही सम्यग्दृष्टि हो तो भी वह अर्थ अन्तिम नहीं है, अन्तिम अर्थ तो तत्त्व साक्षात्कार है । तत्त्वश्रद्धा तो तत्त्व साक्षात्कार का एक सोपान मात्र है, वह सोपान दृढ़ हो तभी यथोचित पुरुषार्थ से तत्त्व साक्षात्कार होता है । २२ उत्तराध्ययन में कहा गया है कि बिना सम्यग्दर्शन के सम्यग्ज्ञान नहीं होता और सम्यग्ज्ञान के अभाव में सदाचार नहीं आता और सदाचार के अभाव में कर्मावरण से मुक्ति सम्भव नहीं होती तथा कर्मावरण से जकड़े हुए प्राणी का निर्वाण नहीं होता । २३ सदाचरण और असदाचरण का निर्धारण कर्ता के दृष्टिकोण पर निर्भर करता है। भले ही व्यक्ति विद्वान् है, भाग्यवान है, पराक्रमी भी है, लेकिन यदि उसका दृष्टिकोण असम्यक् है तो उसका दान, तप आदि समस्त पुरुषार्थ फलाकांक्षा होने से अशुद्ध ही होगा। वह उसे मुक्ति की ओर न अग्रसर करके बन्धन की ओर प्रेरित करेगा, क्योंकि असम्यग्दर्शी होने के कारण उसका दृष्टिकोण सराग होगा और आसक्ति या फलाशा से निष्पन्न होने के कारण उसके सभी कार्य सलाभ होंगे और सलाभ होने से उसके सभी कार्य बन्धन के कारण होंगे। अत: असम्यक् - दृष्टि का सारा पुरुषार्थ अशुद्ध हो जायेगा, क्योंकि वह उसकी मुक्ति में बाधक होगा। लेकिन इसके विपरीत सम्यग्दृष्टि या वीतरागदृष्टि सम्पन्न व्यक्ति के सभी कार्य फलाशा से रहित होने से शुद्ध होंगे। २४ यहाँ सम्यक्त्व का विश्लेषण अनेक अपेक्षाओं से किया गया है ताकि उसके विविध पहलुओं पर प्रकाश पड़े। सम्यक्त्व के भेद २३ त्रिविध भेद - अपेक्षा भेद से सम्यक्त्व के तीन भेद किये गये हैं- कारक, रोचक और दीपक । २५ कारक सम्यक्त्व जिस सम्यक् दृष्टिकोण के होने पर व्यक्ति सदाचरण या सम्यक् चारित्र की साधना में अग्रसर होता है वह कारक सम्यक्त्व कहलाता है। यदि नैतिक रूप से कहें तो कारक सम्यक्त्व शुभाशुभ विवेक की वह अवस्था है जिसमें व्यक्ति जिस शुभ का निश्चय करता है, उसका आचरण भी करता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002120
Book TitleJain evam Bauddh Yog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudha Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2001
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Biography
File Size14 MB
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