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________________ योग की अवधारणा : जैन एवं बौद्ध योग की परिभाषा वस्तुत: योग शब्द संस्कृत का शब्द है जिसका भाव यह है कि जो अपने आप को समझते हैं उससे आप सर्वथा भिन्न हैं। तत्त्वत: जो आप हैं उससे संयुक्त करनेवाली साधना ही योग है। योग को सभी परम्पराओं में परिभाषित किया गया है, परन्तु उसको व्यवस्थित और सम्यक् रूप प्रदान करने का श्रेय महर्षि पतंजलि को जाता है। “चित्त की वृत्तियों का निरोध ही योग है। कुछ विचारक योग की इस परिभाषा पर आपत्ति उठाते हुए कहते हैं कि चित्तवृत्तियों को दुर्बल एवं क्षीण तो किया जा सकता है, परन्तु उनका पूर्ण निरोध असम्भव है, क्योंकि वृत्तियों के प्रवाह का नाम ही चित्त है। अतः चित्तवृत्तियों का निरोध नहीं हो सकता। कारण कि चित्तवृत्तियों का पूर्ण निरोध यदि होता है तो चित्त के अस्तित्व का ही नाश हो जायेगा। फलत: निरुद्धावस्था में न तो कोई कर्म बन सकता है और न ही कोई संस्कार, साथ ही स्मृतियाँ भी नहीं बन पायेंगी जो समाधि से उठने के बाद कर्म करने में सहायक हों। योग की उपर्युक्त परिभाषा एकान्तत: निषेधपरक अर्थ को ही अभिव्यक्त नहीं करती है, बल्कि विधेयात्मक भाव की भी सूचक है। रोकने के साथ करने का भी सम्बन्ध जुड़ा हुआ है। अत: 'चित्त-वृत्ति निरोध' का वास्तविक अर्थ है कि साधक अपनी संसाराभिमुख चित्तवृत्तियों को रोककर अपनी साधना को साध्य सिद्धि या मोक्ष के अनुकूल बनाये। अपनी मनोवृत्तियों को सांसारिक प्रपंचों एवं विषय-वासनाओं से हटाकर मोक्षाभिमुख बनाये। चित्तवृत्ति निरोध से यही अर्थ ध्वनित होता है। मानसिक वृत्तियों का नियन्त्रण एवं एकाग्रता दोनों ही एक-दूसरे के पूरक हैं, क्योंकि मानसिक वृत्तियों के नियन्त्रण के अभाव में एकाग्रता सम्भव नहीं है और एकाग्रता के बिना ब्रह्म-साक्षात्कार का होना असम्भव है। जैन परम्परा में योग का स्वरूप जैन विचारक मोक्ष प्राप्त करनेवाली क्रिया को योग कहते हैं। जैनागमों में संवर शब्द का प्रयोग हुआ है, जो एक विशेष पारिभाषिक शब्द,है। आस्रव-निरोध का नाम संवर है।" समवायांग में पाँच आस्रव बताये गये हैं- मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग।११ जिनमें मिथ्यात्व, कषाय और योग को प्रमुख माना गया है। यहाँ स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि योग दर्शन में जिसे चित्तवृत्ति कहा गया है, उसी को जैन परम्परा में आस्रव रूपी योग के नाम से विभूषित किया गया है। अत: पतंजलि का 'योग' शब्द 'संवर' शब्द का ही समानार्थक है। योग को परिभाषित करते हुए स्थानांग में कहा गया है - मन, वचन और शरीर की क्रियाओं से उत्पन्न आत्म-प्रदेशों का कम्पन जिससे कर्म Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002120
Book TitleJain evam Bauddh Yog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudha Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2001
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Biography
File Size14 MB
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