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________________ २० जैन एवं बौद्ध योग : एक तुलनात्मक अध्ययन योग का शाब्दिक अर्थ संयोग, सम्पर्क, युक्ति, उपाय, नियम, विधान, सूत्र, उपयुक्तता, वशीकरण, ध्यान, चित्तवृति निरोध, निर्वाण, अवधान, समाधि आदि शब्द योग के ही पर्याय हैं। सामान्यतया 'योग' शब्द का अर्थ संयोग, मिलन या मेल से लिया जाता है। या, यह कहा जा सकता है कि दो अथवा दो से अधिक का मिलकर एक हो जाना योग है। गणितशास्त्र में भी योग का अर्थ जोड़ना या मिलाना ही किया जाता है, किन्तु यहाँ पर योग पद से जोड़ना अर्थ लेने पर योग के वाक्यमाण लक्षण से विरोध होगा। व्याकरण की दृष्टि से देखें तो 'योग' शब्द 'युज्' धातु से बना है। 'युज्' धातु भी दो प्रकार के हैं जिनमें एक का अर्थ जोड़ना या संयोजित करना है तो दूसरे का अर्थ समाधि, मनः स्थिरता आदि है। प्राचीन जैन एवं बौद्ध साहित्य में योग शब्द (प्राकृत का जोग) का प्रयोग एक विशेष अर्थ में हुआ है। पाणिनीय व्याकरण में 'युज् समाधौ' (दिवादिगणीय, युज्यते)', 'युजिर् योगे' (रूधादिगणीय, युनक्ति, युक्ड़ते) ' तथा 'युज् संयमने' ये तीन धातुएँ उपलब्ध होती हैं। योग शब्द जब 'युज् समाधौ ' धातु में 'धञ्' प्रत्यय लगने से निष्पन्न होता है तब उसका अर्थ समाधि होता है और जब 'युजिर योगे' या 'युजपी योगे' धातु से निष्पन्न होता है तब उसका अर्थ जोड़ना या संशोधित करना होता है। वैदिक परम्परा में योग शब्द कहीं-कहीं 'युग' शब्द के रूप में भी देखने को मिलता है, जिसका अर्थ होता है 'जोतना' । यहाँ पर 'युग' शब्द प्राचीन आर्य शब्द का प्रतिनिधित्व करता है। योग शब्द की व्याख्या करते हुए डॉ सुरेन्द्रनाथ दास गुप्ता लिखते हैं- “योग शब्द तीन धातुओं से निकला है । यथा- 'युजिर् योगे' जो एक साथ मिलने या युक्त होने के अर्थ में लिया जाता है; 'युज् समाधौ ' जो एकाग्रता के अर्थ को निष्पन्न करता है और 'युज संयमने' जो नियन्त्रित अथवा निरुद्ध होने के अर्थ में प्रयुक्त होता है। * जैन एवं बौद्ध साहित्य में प्रयुक्त 'योग' शब्द का सम्बन्ध 'युजिर योगे' से है, ऐसा प्रतीत होता है। प्राकृत 'जोग' शब्द का सामान्य अर्थ क्रिया है, जो प्रशस्त एवं अप्रशस्त या शुभ एवं अशुभ दोनों प्रकार की हो सकती है। " आचार्य हरिभद्र ने योग का निरुक्तिपरक अर्थ 'युजिर योगे' स्वीकार किया है। कहा है- जो आत्मा को केवलज्ञान आदि परम सात्त्विक तथा ज्ञान चेतना के साथ जोड़ता है, वह योग है। बौद्ध साहित्य में योग शब्द का प्रयोग बन्धन या संयोजन के अर्थ में हुआ है, जो प्रमुखतः चार प्रकार के हैं - कामयोग, भवयोग, दृष्टियोग, अविद्यायोग। इसके समानान्तर अपर शब्द आस्रव, ओघ एवं उपादान भी है। इस प्रकार 'युज्' शब्द जोड़ने के अर्थ में प्रयुक्त होने के साथ ही साथ समाधि एवं क्रिया के रूप में भी व्यवहृत हुआ है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002120
Book TitleJain evam Bauddh Yog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudha Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2001
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Biography
File Size14 MB
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