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________________ ३१० जैन एवं बौद्ध योग : एक तुलनात्मक अध्ययन विचार उपलब्ध नहीं होता है। लेकिन भविष्य जन्म की दृष्टि से देखा जाए तो कर्मभव और उत्पत्तिभव बौद्ध परम्परा में देखने को मिलते हैं। इसी प्रकार जैन परम्परा नवीन बन्ध या पुनर्जन्म की दृष्टि से एकमात्र मोह को ही स्वीकार करती है। बौद्ध परम्परा के अनुसार अविद्या, संस्कार, तृष्णा, उपादान और भव आदि पांच कर्मभव के कारण जन्म-मरण की प्रक्रिया चलती है तथा शेष विज्ञान, नामरूप, षडायतन, स्पर्श, वेदना, जाति और जरामरण, जो उत्पत्तिभव के नाम से जाने जाते हैं, किसी भी नवीन कर्म का बन्ध नहीं करते। लेकिन भूतकालीन जीवन के अर्जित कर्म संस्कार के रूप में अविद्या और संस्कार वर्तमान जीवन की उत्पत्ति भव का निश्चय करते हैं तथा वर्तमान जीवन के तृष्णा, उपादान और भव भावी जीवन के रूप में जाति और जरा-मरण का निश्चय करते हैं। इस प्रकार बौद्ध परम्परा का कर्मभव जैन दर्शन के मोहकर्म तथा उत्पत्तिभव जैन परम्परा के शेष कर्म अवस्थाओं के समान है। ४. जैन परम्परा के दर्शनमोह का नाम ही बौद्ध परम्परा में अविद्या है। दोनों ही इस बात को स्वीकार करते हैं कि अविद्या या दर्शनमोह ही समस्त दुःखों एवं बन्धनों का कारण है। ५. जैन एवं बौद्ध दोनों ही परम्पराओं में मोक्ष या निर्वाण के दो रूप माने गये हैं। जैन परम्परा के अनुसार भावमोक्ष या द्रव्यमोक्ष मोक्ष के दो रूप हैं तथा बौद्ध मान्यता सोपादिशेष निर्वाण धातु तथा अनुपादिशेष निर्वाण धातु, निर्वाण के दो रूप हैं। ६. दोनों ही परम्पराएं मोक्ष या निर्वाण को अनिर्वचनीय स्वीकार करती हैं, उसे वाणी द्वारा व्यक्त नहीं किया जा सकता। आचारांग में कहा गया है- वाणी उसका कथन करने में समर्थ नहीं है, वहाँ वाणी मूक हो जाती है, तर्क की वहाँ तक पहुँच नहीं है, बुद्धि (मति) उसे ग्रहण करने में असमर्थ है अर्थात् वह वाणी, विचार और बुद्धि का विषय नहीं है। किसी उपमा के द्वारा भी उसे नहीं समझाया जा सकता है। वह अनुपम है, अरूपी है, सत्तावान है। उस अपद का कोई पद नहीं है। ऐसा कोई भी शब्द नहीं जिसके द्वारा उसका निरूपण किया जा सके। इसी प्रकार उदान में भगवान् बुद्ध ने कहा है- मैं उसे अगति और गति कहता हूँ, न स्थिति और च्युति कहता हूँ, उसे उत्पत्ति भी नहीं कहता हूँ। वह न तो कहीं ठहरता है, न प्रवर्तित होता है और न उसका कोई आधार है, यही दुःखों का अन्त है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002120
Book TitleJain evam Bauddh Yog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudha Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2001
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Biography
File Size14 MB
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