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बन्धन एवं मोक्ष
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उन बन्धनों को पुरुषार्थहीन बनकर चुपचाप सहती आयी है, बल्कि उन्हें तोड़ने का प्रयत्न सदा-सर्वदा करती रही है। यहाँ पर प्रश्न उपस्थित होता है कि कर्मबन्धन और उसके विपाक से मुक्ति कैसे हो ? प्रति उत्तरस्वरूप यही कहा जा सकता है कि बन्धन के इस चक्र से व्यक्ति को मोक्ष के द्वारा ही मुक्ति मिल सकती है। मोक्ष रूपी अन्तिम साध्य की प्राप्ति को जैनधर्म में सर्वोत्तम माना गया है।
मानव के मन, विचार एवं जीवन में एकाग्रता, स्थिरता एवं तन्मयता नहीं होने के कारण ही मानव को अपने आप पर, अपनी शक्तियों पर पूरा भरोसा नहीं होता । वह निश्चित विश्वास एवं निष्ठा के साथ अपने लक्ष्य की ओर नहीं बढ़ पाता। फलतः उसकी शक्तियों का प्रकाश भी धूमिल पड़ने लगता है । अतः शक्तियों को अनावृत करने, आत्मज्योति को प्रकाशित करने तथा अपने साध्य तक पहुँचने के लिए मन, वचन और कर्म में एकरूपता एवं स्थिरता लाने का नाम ही योग है।
आत्मविकास के लिए योग एक प्रमुख साधन है और योग का लक्ष्य है आत्मविकास अर्थात् मोक्ष। योग के दो रूप होते हैं- बाह्य और आभ्यंतर । एकाग्रता योग का बाह्य रूप है और अहंभाव आदि मनोविकार उसका आभ्यंतर रूप है। अहंभाव आदि मनोविकारों का परित्याग किए बिना मन, वचन एवं काय योग में स्थिरता नहीं आ सकती और न ही मन, वचन और कर्म में एकरूपता या समता आ सकती है। जब तक तीनों में एकरूपता नहीं होगी तब तक मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो सकती। मोक्ष की प्राप्ति तभी संभव है जब व्यक्ति अहंत्व - ममत्वभाव से रहित समत्व भाव की साधना यानी योग रूपी सर्वोत्तम साधना को अंगीकार करेगा। इस प्रकार योग और मोक्ष में साधन - साध्य सम्बन्ध देखा जाता है।
तुलना
१. जैन एवं बौद्ध दोनों ही परम्पराएं निवृत्तिप्रधान हैं।
२. बन्धन के कारण के रूप में जैन परम्परा मुख्य रूप से जहाँ राग, द्वेष और मोह को स्वीकार करती है, वहीं बौद्ध परम्परा अविद्या और तृष्णा को बन्धन का मूल कारण मानते हुए अविद्या, संस्कार, तृष्णा, उपादान, भव आदि द्वादश श्रृंखलाओं को प्रस्तुत करती है।
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३. जैन परम्परा में कर्म के आठ प्रकार माने गये हैं जो आत्मा के स्वभाव के आवरण की दृष्टि से दो भागों में विभक्त है- घाती कर्म और अघाती कर्म । बौद्ध दर्शन में आत्मा के स्वभाव को आवरित करनेवाले घाती और अघाती कर्मों के सम्बन्ध में कोई
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