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जैन एवं बौद्ध योग : एक तुलनात्मक अध्ययन
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रेगिस्तान को पार कर पथिक को जो हर्ष मिलता है, वही सुख और आनन्द जन्म-मरण के भवसागर को पार करने अर्थात् निर्वाण प्राप्त करनेवाले को होता है। यही परमसुख है। परम सुख का वर्णन शब्दों से परे है वह मधु से भी मीठा, पर्वत से भी ऊँचा और समुद्र से भी गहरा है। निर्वाण के विषय में कहा गया है कि यह तो महासमुद्र की भाँति अनन्त है। कमल के समान क्लेशों से अलिप्त है। जल के समान सभी क्लेशों की गर्मी शान्त कर देता है । ११९
इस प्रकार निर्वाण केवल पुनर्जन्म का निरोध ही नहीं वरन् परमशान्ति की प्राप्ति है । अमृतलाभ से बढ़कर और कोई लाभ नहीं, इसलिए इसे "परम लाभ " और "परम शान्त" पद कहा गया है। निर्वाण प्राप्त व्यक्ति विमुक्ति रस का आस्वाद लेता है । विमुक्त व्यक्ति का कर्तव्य-कर्म पूरा हो जाता है, प्राप्तव्य प्राप्त हो जाता है, कुछ करने को शेष नहीं रह जाता, वह अत्यन्त शान्तपद को प्राप्त करता है ।
निर्वाण प्राप्ति के मार्ग
जिन कारणों से दुःख उत्पन्न होता है उन कारणों के नाश का उपाय ही निर्वाण मार्ग है। बौद्धमतानुसार दुःख से मुक्त होने के लिए व्यक्ति को दो छोरों का त्याग करना चाहिए - १. आत्मा को नित्य समझकर नाना प्रकार के सुखों की कामना करना तथा २. शरीर की अवहेलना करके अर्थात् तप की प्रक्रिया में शरीर को क्षीण करके निर्वाण प्राप्त करने का प्रयास। ये दो अन्त जिन्हें त्यागकर बीच के मार्ग को अपनाना ही बुद्ध का उपदेश था, जिसे उन्होंने अष्टांगिक मार्ग के नाम से विभूषित किया, वे अष्टांगिक मार्ग निम्न हैं
१. सम्यक् - दृष्टि, २. सम्यक् संकल्प, ३. सम्यक् वाक् ४. सम्यक् कर्मान्त, ५. सम्यक्-आजीव, ६. सम्यक् - व्यायाम, ७. सम्यक् स्मृति, ८. सम्यक्-समाधि ।
अष्टांगिक मार्ग का विवेचन पूर्व में द्वितीय अध्याय में किया जा चुका है। अतः यहाँ पुनः निरूपित करना उचित नहीं जान पड़ता ।
मोक्ष (निर्वाण) और योग
सम्पूर्ण भारतीय दर्शन में (चार्वाक को छोड़कर) जन्म-मरण को ही सभी दुःखों का कारण माना जाता है। यह आत्मा अनन्तकाल से बन्धन में चली आ रही है, क्योंकि आत्मा राग-द्वेष अथवा मोह से अभिभूत हुई नये कर्मों का संयम करती रहती है, फलत: जन्म-मरण की परम्परा सतत चलती रहती है। व्यक्ति में इतनी शक्ति नहीं कि वह कर्म विपाक की अनुभूति से इंकार कर दे। लेकिन ऐसा भी नहीं कहा जा सकता कि आत्मा
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