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बन्धन एवं मोक्ष
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है- “हे आनन्द! जन्म न होता तो सर्वथा किसी की भी जाति नहीं होती, जैसे देवों का देवत्व, गन्धर्वो का गन्धर्वत्व, यक्षों का यक्षत्व, भूतों का भूतत्व, मनुष्यों का मनुष्यत्व, चतुष्पदों का चतुष्पदत्व, पक्षियों का पक्षित्व, सरीसृपों को सरीसृपत्व आदि। यदि जन्म नहीं होता, सर्वथा जन्म का अभाव होता, जन्म का निरोध होता तो क्या आनन्द जरामरण दिखलाई पड़ता? आनन्द ने कहा- नहीं भन्ते ! इसलिए आनन्द जरा-मरण का यही हेतु निदान समुदय प्रत्यय है जो कि यह जन्म ।९८
इस प्रकार भगवान् बुद्ध ने दु:ख (बन्धन) के कारणों की एक लम्बी श्रृंखला प्रस्तुत की है, जिसके अन्तर्गत उन्होंने बारह कारण बतलाये हैं। दुःखों के (बन्धन के) कारणों को बतलाते हुए उन्होंने अविद्या को ही बन्धन का मूल कारण माना है। इस प्रकार भव को नष्ट करने के लिए उपादान का निरोध, उपादान के निरोध के लिए तष्णा का निरोध, तृष्णा के निरोध के लिए वेदना का निरोध, वेदना के निरोध के लिए स्पर्श का निरोध, स्पर्श के निरोध के लिए षडायतन का निरोध, षडायतन के निरोध के लिए नामरूप का निरोध, नामरूप के निरोध के लिए विज्ञान का निरोध, विज्ञान के निरोध के लिए संस्कार का निरोध, संस्कार के निरोध के लिए अविद्या का निरोध आवश्यक है। लेकिन अविद्या का निरोध तभी सम्भव है जब चार आर्य सत्यों का सम्यग्ज्ञान हो।
बन्धन की उपर्युक्त बारह कड़ियों को प्रतीत्यसमुत्पाद नाम से अभिहित किया गया है। प्रतीत्यसमुत्पाद की इन बारह कड़ियों को तीन भागों में बाँटा जा सकता है।- भूतकाल, वर्तमान काल और भविष्यतकाल। इन तीनों विभाजन को हम तीन जन्मों से जान सकते हैं या फिर एक ही जन्म या क्षण की तीन क्रमिक अवस्थाओं से भी जाना जा सकता है, क्योंकि बौद्ध दर्शन के अनुसार चित्त की सतत् प्रवाहशील धारा जो प्रतिक्षण नष्ट एवं उत्पन्न हो रही है उसमें भी भूत, वर्तमान और भविष्य तीनों क्षण विद्यमान रहते हैं। प्रत्येक क्षण में हमारा जन्म एवं मरण होता रहता है। जहाँ तक हमारे भूत, वर्तमान और भविष्य के जन्मों की बात है तो उसके लिए हमें प्रतीत्यसमुत्पाद के सम्बन्धों को पहले समझ लेना चाहिए। प्रतीत्यसमुत्पाद की बारह कड़ियों में से अविद्या और संस्कार दोनों हमारे पूर्वजन्म की वे रचनात्मक कर्मशक्तियाँ हैं जो संकलित होकर हमारे वर्तमान जन्म को निश्चित करती हैं। हमारे वर्तमान जीवन के विज्ञान, नामरूप, षडायतन, स्पर्श और वेदना सब उसी के विपाकस्वरूप होते हैं। तत्पश्चात् हमारे वर्तमान जीवन की कड़ियाँ जो तृष्णा, भव और उपादान के रूप में उत्पन्न होती हैं, स्वयं कर्मभव बन जाती हैं, जिनका विपाक भविष्य के पुनर्जन्म रूप में होता है और फिर जरा-मरण और दुःख की सन्तति प्रक्रिया प्रारम्भ हो जाती है, जो वर्तमान जीवन के कर्मविपाक के समान होती है। इस प्रकार यह
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