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________________ जैन एवं बौद्ध योग : एक तुलनात्मक अध्ययन ३०२ रहती है। यदि इन्द्रियों से स्पर्श हुआ है तो वेदना रोकी नहीं जा सकती, चाहे वह दुःख रूप हो या सुख रूप, सुख-दुःख रूप हो या असुख - अदुःख रूप ही क्यों न हों ? (८) तृष्णा - वेदना से तृष्णा की उत्पत्ति होती है । इन्द्रिय एवं मन के विषयों के सम्पर्क की अभिलाषा तृष्णा कहलाती है। विषय छ: प्रकार के होते हैं और उन विषयों के प्रति छः प्रकार की तृष्णाएं होती हैं। मुख्य रूप से तृष्णा के तीन ही प्रकार हैंकामतृष्णा, भवतृष्णा और विभवतृष्णा । रूप, रस, गन्ध, स्पर्श, शब्द और मन के विषयों के प्रति भोग की कामना को लेकर जो तृष्णा उदित होती है, वह काम - तृष्णा कहलाती है। विषय और विषयी (भोक्ता) का संयोग सदैव बना रहे, उनका उच्छेदन न हो, लालसा भव-तृष्णा कहलाती है। दुःख संवेदन रूप विषयों के सम्पर्क को लेकर जो विनाश-सम्बन्धी इच्छा उदित होती है, वह विभव तृष्णा के नाम से जानी जाती है । यह त्रिविध तृष्णा ही समस्त दुःखों की जननी है। जो साधक इस त्रिविध तृष्णा को दबाकर रखता है उससे दुःख उसी प्रकार गिर जाता है जिस प्रकार कमल के पत्ते से जल । यह (९) उपादान - तृष्णा से उपादान की उत्पत्ति होती है । उपादान अर्थात् सांसारिक विषयों में लिप्त रहने की अभिलाषा । इसके तीन प्रकार हैं- कामोपादान अर्थात् स्त्री में आसक्ति रखना, शीलोपादान- अर्थात् व्रतों में आसक्ति रखना, आत्मोपादान अर्थात् आत्मा को नित्य समझने में आसक्ति रखना । (१०) भव - उपादान से भव की निष्पत्ति होती है। भव अर्थात् पुनर्जन्म करानेवाला कर्म । इसके दो प्रकार होते हैं- कर्मभव और उत्पत्तिभव । वे सभी कर्म जो पुनर्जन्म देनेवाले हैं, कर्मभव हैं। अतः कर्मभव पुनर्जन्मकारी चेतना की ही संग्रहात्मक संज्ञा का नाम है। इसी प्रकार जिस-जिस उपादान को लेकर व्यक्ति जिस-जिस लोक में जन्म पाता है, वह उसका उत्पत्ति भव होता है। (११) जाति - भव जाति का कारण होता है । भव से ही जाति की उत्पत्ति होती है। इसे दूसरी भाषा में इस प्रकार कहा जा सकता है कि बच्चे का मां की कोख में आने पर रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार और विज्ञान रूप पंचस्कन्ध का प्रस्फुरण जाति है। जन्म धारण भव के कारण ही होता है। यदि शरीर न हो तो कोई कष्ट भी नहीं होगा । अतः शरीर धारण करना या जन्म लेना ही जरामरण का कारण है जिसे बौद्ध दर्शन की भाषा में जाति कहते हैं। (१२) जरामरण - जाति से जन्म-मरण की उत्पत्ति होती है। जन्म धारण कर वृद्धावस्था और मृत्यु को प्राप्त होना ही जरा-मरण है। दीघनिकाय में भगवान् बुद्ध ने कहा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002120
Book TitleJain evam Bauddh Yog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudha Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2001
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Biography
File Size14 MB
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