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________________ जैन एवं बौद्ध योग : एक तुलनात्मक अध्ययन भवचक्र चलता रहता है। द्वादश कड़ियों को डॉ० राधाकृष्णन ने तालिका के रूप में निम्न प्रकारेण किया है९९ प्रस्तुत अतीत ३०४ कर्मभव उत्पत्तिभव - १. अविद्या २. संस्कार Jain Education International वर्तमान ८. तृष्णा ९. उपादान १०. भव ३. विज्ञान ४. नामरूप भविष्यत् ५. षडायतन ६. स्पर्श ७. वेदना इस प्रकार प्रतीत्यसमुत्पाद हमें यह बतलाता है कि किस प्रकार प्राणी अविद्या के कारण नाना अनुभवों और चेतना की अवस्थाओं में भ्रमण करता है। संस्कार, विज्ञान, नामरूप आदि क्रमशः अन्त में जन्म, जरा, मरण, शोक, परिदेव, दुःख और दौर्मनस्य आदि ऐसी अवस्था में आ जाते हैं जहाँ दुःख इतना स्थूल और शक्तिशाली हो जाता है कि व्यक्ति को उसके समुदय के बारे में सोचना पड़ता है। वह दु:ख निरोध के उपायों को ढूढ़ता है। दुःख के स्वभाव पर विचार करना ही दुःख निरोध की पहली सीढ़ी है और यही पहली सीढ़ी अष्टांगिक मार्ग की सम्यक् दृष्टि है जो व्यक्ति को दुःख के स्वभाव, उसके कारण और दुःख निरोध तथा निरोधगामिनी प्रतिपद् को समझानेवाली दृष्टि है। ११. जन्म (जाति) १२. जरामरण अब प्रश्न होता है कि यदि दुःख है और उसका कारण भी ज्ञात है तो उसका नाश भी संभव है। दुःखनाश की यह स्थिति ही दुःख निरोध कहलाती है और यही निर्वाण है । जरा-मरण का निदान ही निर्वाण है। निर्वाण निर्वेद की अवस्था है। शरीर धारण करने से दुःख का अनुभव होता है और निर्वाण द्वारा शरीर धारण की प्रक्रिया समाप्त हो जाती है, अर्थात् शरीर और संसारजन्य क्लेशों का क्षय हो जाता है। इस प्रकार समस्त क्लेशों का क्षय हो जाना ही निर्वाण है। निर्वाण प्राप्त करने के पश्चात् जन्म ग्रहण की क्रिया समाप्त हो जाती है और मनुष्य अमृततत्त्व को प्राप्त करता है। जैसा कि भगवान् बुद्ध ने कहा For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002120
Book TitleJain evam Bauddh Yog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudha Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2001
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Biography
File Size14 MB
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