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________________ ३०० जैन एवं बौद्ध योग : एक तुलनात्मक अध्ययन योनियों में भटकते हुए जन्ममरण की परम्परा में संलग्न रहेगा। बुद्ध ने जन्म-मरण की इस परम्परा को बारह कड़ियों में सूत्रबद्ध किया है, जो इस प्रकार है (१) अविद्या-अज्ञान को अविद्या कहते हैं। यही चैतसिक मोह है। बौद्ध-परम्परा में दुःख, दु:ख समुदय, दुःख निरोध और दुःख निरोध-मार्ग रूपी चार आर्य सत्य सम्बन्धी अज्ञान ही अविद्या है। अविद्या ही संसार में आवागमन का मूलाधार है। अविद्या दो प्रकार की होती है- (i) घनीभूत अविद्या तथा, (ii) तनुभूत अविद्या । कुशल, अकुशल कर्मों और उनके इष्टानिष्ट फल को न जानना घनीभूत अविद्या है और कुशल को कुशल समझकर उसका समाधान करना तथा अकुशल को अकुशल समझकर उनसे विरत होना तनुभूत अविद्या है। ऐसी बात नहीं है तनुभूतावस्था में अविद्या नहीं रहती, बल्कि उसमें भी अविद्या होती है, क्योंकि अविद्या का सर्वथा प्रहाण अर्हतावस्था में ही होता है, फिर भी इस बीच की अविद्या तनुभूत अविद्या कहलाती है। अविद्या एक प्रत्यय है जो हमारे वर्तमान बाह्य एवं आन्तरिक जीवन संस्कारों के लिए उत्तरदायी है, क्योंकि अविद्या से ही संस्कारों की उत्पत्ति होती है। (२) संस्कार -कुशल-अकुशल, कायिक, वाचिक और मानसिक चेतनाएँ जो जन्म-मरण परम्परा का कारण बनती हैं, संस्कार कहलाती हैं। इन्हें मानसिक वासना भी कहा जाता है। इनके तीन प्रकार हैं- (i) पुण्याभिसंस्कार (ii) अपुण्याभिसंस्कार तथा (iii) अन्योन्याभिसंस्कार। इनमें कामवचन आदि आठ कुशल चित्तो में सम्प्रयुक्त आठ चेतनाएँ तथा रूपावचर आदि पाँच कुशल चित्तों में सम्प्रयुक्त पाँच चेतनाएँ, कुल तेरह चेतनाएँ पुण्याभिसंस्कार कहलाती हैं। ठीक इसके विपरीत बारह अकुशल चित्तो में सम्प्रयुक्त बारह चेतनाएँ अपुण्याभिसंस्कार तथा अरूपावचर आदि चार कुशल चित्तों में सम्प्रयुक्त चार चेतनाएँ अन्योन्याभिसंस्कार हैं। संस्कारों से विज्ञान की उत्पत्ति होती है। (३) विज्ञान-विज्ञान संस्कारजन्य होता है। विज्ञान चेतना को कहते हैं। दूसरी भाषा में यह कहा जा सकता है कि विज्ञान का तात्पर्य उन चित्तधाराओं से है जो पूर्वजन्म में किए हुए कुशल या अकुशल कर्मों के विपाकस्वरूप प्रकट होते हैं और जिनके कारण व्यक्ति को अपने विषय में आँख, कान, नाक, जिह्वा, शरीर आदि विषयक अनुभूति होती है अर्थात् विज्ञान इन्द्रियों की ज्ञान सम्बन्धी चेतना/क्षमता का आधार एवं निर्धारक है।९४ निदानसुत्त में कहा गया है कि यदि अविद्या और तृष्णा के अशेष निरोध से कुशल, अकुशल अथवा अव्याकृत संस्कार उत्पन्न न हो तो फिर माता के गर्भ में पुनः विज्ञान का बीज पड़ता ही नहीं, अर्थात् पुनर्जन्म ही नहीं होता।५ तात्पर्य है कि संस्कार से पुनर्जन्म Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002120
Book TitleJain evam Bauddh Yog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudha Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2001
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Biography
File Size14 MB
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