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________________ बन्धन एवं मोक्ष २९९ गुणीजनों के प्रति प्रमोदवृत्ति- प्रमोद अर्थात् अपने से अधिक गुणवान के प्रति आदर रखना तथा उसके उत्कर्ष को देखकर प्रसन्न होना। इस भावना का विषय अधिक गुणवान ही है, क्योंकि उसके प्रति ही ईर्ष्या या असूया आदि दुर्वृत्तियाँ सम्भव हैं। जब तक इस वृत्ति का नाश नहीं हो जाता तब तक अहिंसा, सत्य आदि व्रत नहीं टिकते हैं। करुणावृत्ति-प्राणीमात्र के प्रति करुणा की भावना रखनी चाहिए। इस भावना का विषय केवल क्लेश से दुःखी प्राणी है, क्योंकि दुःखी, दीन व अनाथ को ही अनुग्रह या मदद की अपेक्षा रहती है। यदि किसी पीड़ित को देखकर भी अनुकम्पा, अनुग्रह का भाव पैदा नहीं होता है तो अहिंसा का पालन असंभव है। इसलिए जैनधर्म में करुणा की भावना आवश्यक मानी गयी है। माध्यस्थ्यवृत्ति-माध्यस्थ्य भावना का विषय अविनयी या अयोग्य पात्र है। माध्यस्थ्य का अर्थ होता है- उपेक्षा या तटस्थता। जब नितान्त संस्कारहीन अथवा किसी भी तरह की सद्वस्तु ग्रहण करने के अयोग्य पात्र मिल जाय अथवा यदि उसे सुधारने के सभी प्रयत्नों का परिणाम अन्तत: शून्य ही दिखाई दे, तो ऐसे व्यक्ति के प्रति तटस्थ भाव रखना ही उचित है।८८ बौद्ध परम्परा में बन्धन-मोक्ष जैन परम्परा में हमने देखा कि आस्रव ही बन्धन का मूल कारण है। अत: जैन परम्परा की ही भाँति बौद्ध परम्परा में भी आस्रव को ही बन्धन का कारण माना गया है। बौद्ध परम्परा के अनुसार आस्रव के तीन प्रकार हैं- (१) काम, (२) भव और (३) अविद्या।८९ जिनमें अविद्या को प्रमुख माना गया है। लेकिन अविद्या या मिथ्यात्व अकारण नहीं वरन् आस्रव-प्रसूत है। भगवान् बुद्ध ने जहाँ अविद्या को आस्रव का कारण माना है वहीं उन्होंने यह भी बताया है कि आस्रवों के समय से अविद्या का समदय होता है।९० इस प्रकार आस्रव को अविद्या का मूल कारण माना गया है। लेकिन आस्रव से अविद्या और अविद्या से आस्रव की यह परम्परा चलती रहती है। अविद्या के सम्बन्ध में भगवान् बुद्ध ने कहा है - "भिक्षुओं अविद्या के आरम्भ का पता नहीं चलता जिससे ये कहा जा सके कि इसके पहले अविद्या न थी और इसके बाद वह उत्पन्न हुई।११ ऐसे ही यह संसार -चक्र अनादि है इसके आरम्भ का पता नहीं चलता, इसकी पूर्व कोटि जानी नहीं जाती।९२ यह सत्य भी है अविद्या और तृष्णा से संचालित भटकते फिरते मनुष्यों की पूर्वकोटि का पता नहीं चलता। जब तक मनुष्य यह नहीं जानना चाहेगा कि दु:ख का स्वरूप क्या है? उसके समुदय, निरोध और निरोध मार्ग क्या हैं? तो फिर यह निश्चित ही है कि वह नाना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002120
Book TitleJain evam Bauddh Yog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudha Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2001
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Biography
File Size14 MB
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