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________________ २८४ जैन एवं बौद्ध योग : एक तुलनात्मक अध्ययन प्रक्रिया। द्रव्यास्रव का कारण भावास्रव है, लेकिन यह भावात्मक परिवर्तन भी अकारण नहीं होता है, वरन पूर्वबद्ध कर्म के कारण होता है। इस प्रकार पूर्वबन्धन के कारण भावास्रव तथा भावास्रव के कारण द्रव्यास्रव और द्रवयास्रव से कर्म का बन्धन होता है।२५ साम्परायिक कर्मास्रव के ३९ भेद बताये गये हैं, जो इस प्रकार हैं२६१.पाँच अव्रत- हिंसा, असत्य, चोरी, अब्रह्मचर्य तथा परिग्रह। २.चार कषाय- क्रोध, मान, माया और लोभा ३.पाँच इन्द्रिय विषयों का सेवन- स्पर्शन, रसन, घ्राण, चाक्षुष और श्रोत्र। ४.पच्चीस साम्परायिक क्रियाएं-निम्नलिखित हैं १. सम्यक्त्व क्रिया- देव, गुरु व शास्त्र की पूजाप्रतिपत्तिरूप होने से सम्यक्त्व पोषक क्रिया सम्यक्त्व क्रिया है। २.मिथ्यात्व क्रिया-मिथ्यात्व-मोहनीय कर्म से होनेवाली सराग देव की स्तुति-उपासना आदि मिथ्यात्व क्रिया है। ३.प्रयोग क्रिया-शरीर आदि द्वारा जाने-आने में कषाययुक्त प्रवृत्ति प्रयोग क्रिया है। ४. समादान क्रिया- त्यागी होते हुए भोगवृत्ति की ओर झुकाव समादान क्रिया है। ५. ईर्यापथ क्रिया- एक सामयिक कर्म के बन्धन या वेदन की कारण भूत क्रिया ईर्यापथ क्रिया है। १.कायिकी क्रिया- किसी कार्य में दुष्ट भाव से युक्त होकर प्रयत्न करना कायिकी क्रिया है। २. आधिकरणिकी क्रियाहिंसा की दृष्टि से अस्त्र-शस्त्र धारण करने की क्रिया आधिकरणिकी क्रिया है। ३.प्रादोषिकी क्रिया- क्रोध, ईर्ष्या आदि से होनेवाली क्रिया प्रादोषिकी क्रिया है। ४.पारितापनिकी क्रियाप्राणीमात्र को कष्ट देना पारितापनिकी क्रिया है। ५. प्राणातिपातिकी क्रिया- प्राणियों को प्राणों से वियुक्त करने की क्रिया प्राणातिपातिकी क्रिया है। १.दर्शनक्रिया- रागवश रमणीय रूप को देखने की वृत्ति दर्शनक्रिया है । २.स्पर्शन क्रिया- प्रमादवश स्पर्श करने योग्य वस्तुओं के स्पर्श की वृत्ति स्पर्शन क्रिया है। ३.प्रात्ययिकी क्रिया- नये शस्त्रों का निर्माण प्रात्ययिकी क्रिया है। ४.समन्तानुपातन क्रिया- स्त्री, पुरुष और पशुओं के जाने-आने वाले रास्ते पर मल-मूत्र का त्याग करना समन्तानुपातन क्रिया है। ५.अनाभोग क्रिया-अशुद्ध यानी जिस जगह का अवलोकन और प्रमार्जन नहीं किया हो, उस स्थान पर बैठना या शरीर रखना अनाभोग क्रिया है। १. स्वहस्त क्रिया- दूसरे के करने की क्रिया को स्वयं करके दूसरे को कष्ट पहुँचाना स्वहस्त क्रिया है। २. निसर्ग क्रिया-दूसरे को पापकारी वृत्ति के लिए अनुमति देना निसर्ग क्रिया है। ३. विदार क्रिया-दूसरे के किये गये पाप कार्यों को प्रकट करना विदार क्रिया है। ४. आज्ञाव्यापादिकी क्रिया- सामर्थ्यता के अभाव में शास्त्रोक्त आज्ञा के विपरीत प्ररूपणा करना आज्ञाव्यापादिकी क्रिया है। ५. अनवकांक्ष क्रिया-धूर्तता एवं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002120
Book TitleJain evam Bauddh Yog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudha Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2001
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Biography
File Size14 MB
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