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बन्धन एवं मोक्ष
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लेकिन संख्या में भेद दिखाई देने से यह नहीं समझना चाहिए कि ये परस्पर भिन्न हैं, बल्कि तात्त्विक दृष्टि से इन परम्पराओं में अन्तर नहीं है। यदि सही माने में देखा जाए तो मुख्य रूप से राग, द्वेष और मोह ये तीन ही बन्धन के मूल कारण हैं। उत्तराध्ययन के बत्तीसवें अध्याय में राग और द्वेष को कर्मबीज कहा गया है तथा मोह को उनका कारण माना गया है।१९ परन्तु राग और द्वेष में राग ही प्रमुख माना जाता है। जैसा कि आचार्य कुन्दकुन्द ने कहा है- आसक्त आत्मा ही कर्म-बन्ध करती है और अनासक्त मुक्त हो जाती है, यही जिनदेव का उपदेश है। अत: कर्मों में आसक्ति मत रखो।२० राग, द्वेष और मोह परस्पर एक-दूसरे के कारण हैं। द्वेष का कारण राग होता है और राग का कारण मोह तथा राग
और मोह परस्पर एक-दूसरे के कारण होते हैं। अत: जैन परम्परा में यही तीन बन्धन के मूल कारण माने गये हैं। लेकिन द्वेष जो राग जनित होता है, को छोड़ देने पर शेष राग और मोह दो ही कारण मुख्य रूप से रह जाते हैं।
इस प्रकार उपर्युक्त सूत्र से कर्म-वर्गणाओं का आत्मा में आस्रवण होता है। कर्मवर्गणाओं का यह आस्रवण ही जैन चिन्तन की भाषा में आस्रव है। जैसा कि तत्त्वार्थसूत्र में कहा गया है-काय, वचन और मन की क्रिया योग है, यही आस्रव है अर्थात् कर्म का सम्बन्ध करानेवाला है।२१ योग की प्रवृत्तियाँ दो रूपों में होती हैं- शुभ प्रवृत्ति और अशुभ प्रवृत्ति२२। शुभयोग कार्य पुण्य-प्रकृतिबन्ध और अशुभ योग कार्य पाप-प्रकृतिबन्ध है। हिंसा, चोरी, अब्रह्मचर्य आदि कायिक व्यापार अशुभ काययोग और दया, दान, ब्रह्मचर्य पालन आदि शुभ काययोग है।
कर्मास्रव के दो प्रकार हैं-साम्परायिक और ईर्यापथिक।२२ पं० सुखलाल संघवी के अनुसार-आत्मा का पराभव करनेवाला कर्म साम्परायिक कहलाता है।२४ यथा-गीले चमड़े पर हवा द्वारा पड़ी हुई रज-कण उससे चिपक जाती है, वैसे ही योग द्वारा आकृष्ट होनेवाला जो कर्म कषाय के उदय के कारण आत्मा के साथ सम्बद्ध होकर स्थिति पा लेता है वह साम्परायिक कर्मास्रव कहलाता है। ठीक इसके विपरीत सूखी दीवाल के ऊपर लगे हुए लकड़ी के गोले की भाँति योग से आकृष्ट जो कर्म कषाय के उदय न होने से आत्मा के साथ लगकर तुरन्त छूट जाता है वह ईर्यापथिक कर्मास्रव कहलाता है। इसके पहले क्षण में आस्रव होता है तथा दूसरे क्षण में वह निर्जरित हो जाता है अर्थात् ईर्यापथिक कर्म की स्थिति मात्र एक समय की होती है। ऐसी क्रिया आत्मा में कोई विभाव उत्पन्न नहीं करती। डॉ० सागरमल जैन के अनुसार कर्मास्रव के निम्न दो भेद हैं- १.भावास्रव २. द्रव्यास्त्रव। आत्मा की विकारी मनोदशा भावात्रव है और कर्म-वर्गणाओं के आत्मा मे आने की प्रक्रिया द्रव्यास्रव है। जिसमें भावास्रव कारण है तथा द्रव्यास्रव कार्य या
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