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________________ २८२ जैन एवं बौद्ध योग : एक तुलनात्मक अध्ययन अविरति-दोषों से विरत न रहना अविरति है। इसे दूसरी भाषा में इस प्रकार कहा जा सकता है कि सदाचार या चारित्र धारण करने की ओर रुचि या प्रवृत्ति का न होना अविरति है। इसके पाँच प्रकार हैं-हिंसा, असत्य, स्तेयवृत्ति, मैथुन और परिग्रह। । __ प्रमाद-आत्मविस्मरण अर्थात् कुशल कार्यों में अनादर या कर्तव्य-अकर्तव्य की स्मृति में असावधानी को प्रमाद कहते हैं।११ इस असावधानी के कारण कुशल कर्म के प्रति अनास्था तो होती है, साथ-ही-साथ हिंसा की भूमिका भी तैयार होने लगती है, क्योंकि प्रमाद हिंसा के हेतुओं में प्रमुख हेत है। दूसरे प्राणी की हिंसा हो या न हो लेकिन जो प्रमादी व्यक्ति है उसे हिंसा दोष निश्चित रूप से लगता है। यही कारण है कि उत्तराध्ययन के दशवें अध्याय में भगवान् महावीर ने इस कथन पर बल देते हुए गणधर गौतम को चेतावनी दी है कि 'समयं गोयम मा पमायए' अर्थात् गौतम क्षणभर भी प्रमाद मत करो। विकथा, कषाय, राग, विषय-सेवन, निद्रा आदि पाँच प्रमाद हैं।१२ कषाय-समभाव की मर्यादा को तोड़ना कषाय कहलाता है।१३ क्रोध, मान, माया और लोभ ये चार कषाय हैं जो आत्मा को अपने शान्त और निर्विकारी स्वरूप से च्युत कर देते हैं। यद्यपि ये चारों मुख्यत: दो ही हैं-राग और द्वेष। क्रोध कषाय द्वेष रूप होता है। यह द्वेष का कारण और कार्य भी होता है। मान यदि क्रोध को उत्पन्न करता है तो द्वेष रूप ही होता है। ऐसे ही लोभ रागरूप होता है। माया यदि लोभ को जाग्रत करती है तो रागरूप होती है। तात्पर्य है कि यह राग और द्वेष ही सभी अनर्थों, व्यभिचारों की जड़ है। इन कषायों के अतिरिक्त हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेद आदि नो कषाय हैं जो आत्मा में विकारपरिणति उत्पन्न करते हैं।१४ योग- मन, वचन और काय की प्रवृत्ति को योग कहते हैं।५ शुभ योग और अशुभ योग, योग के दो प्रकार हैं।२६ शुभ योग पुण्यकर्म का आस्रव कराता है और अशुभयोग पापकर्म का। सबका शुभ चिन्तन यानी अहिंसक विचारधारा शुभ मनोयोग कहलाता है। ऐसे ही हित, मित, प्रिय वचन बोलना शुभ वचनयोग है और पर को बाधा न देनेवाली यत्नाचारपूर्वक प्रवृत्ति शुभकाय योग है। ठीक इसके विपरीत चिन्तन, वचन, तथा कार्यप्रवृत्ति अशुभ मन-वचन-काययोग है।१७। बन्धन के इन कारणों को लेकर विद्वानों में मतभेद देखा जाता है। पं० सुखलाल संघवी के शब्दों में-एक परम्परा के अनुसार कषाय और योग ये दो ही बन्ध के हेतु हैं। दूसरी परम्परा में मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग ये चार बन्ध के हेतु माने गये हैं। ' तीसरी परम्परा में उक्त चार हेतुओं में प्रमाद को बढ़ाकर पाँच बन्ध हेतुओं का वर्णन है।१८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002120
Book TitleJain evam Bauddh Yog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudha Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2001
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Biography
File Size14 MB
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