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________________ बन्धन एवं मोक्ष २८१ प्रदेशबन्ध-यह एकीभाव की व्यवस्था है। तत्त्वार्थसूत्र में प्रदेशबन्ध की व्याख्या करते हुए कहा गया है कि योग के कारण समस्त आत्मप्रदेशों पर सभी ओर से सूक्ष्म कर्म-पगल आकर एक क्षेत्रावगाही हो जाते हैं। जिस क्षेत्र में आत्मप्रदेश हैं उसी क्षेत्र में वे पुद्गल ठहर जाते हैं। इसी का नाम प्रदेशबन्ध है। स्थितिबन्ध-प्रत्येक कर्म आत्मा के साथ निश्चित समय तक ही रहता है। कर्मपुद्गल जीव के साथ कब तक चिपके रहेंगे और कब अपना फल देना प्रारम्भ करेंगे, इसकी काल मर्यादा भी निर्धारित होती है। काल मर्यादा के इस निर्माण को ही स्थितिबन्ध के नाम से जाना जाता है। अनुभागबन्ध-इसमें फलदान-शक्ति की व्यवस्था बनती है। कर्मों के बन्ध एवं विपाक की तीव्रता और मंदता का निश्चय होता है। स्वभाव के निर्माण के साथ ही साथ फल चखने की शक्ति का भी निर्माण हो जाता है। इस प्रकार की शक्ति अथवा विशेषता अनुभागबन्ध कहलाती है। बन्ध के ये चारों प्रकार एक साथ ही होते हैं, किन्तु आत्मा के साथ कर्म-पुद्गलों के एकीभाव की दृष्टि से प्रदेशबन्ध पहले आता है। इसके होते ही उनमें स्वभाव-निर्माण, काल-मर्यादा और फल-शक्ति का निर्माण हो जाता है। बन्ध के इन चारों प्रकारों में से प्रकृतिबन्ध और प्रदेशबन्ध योग (मन, वचन और काय) के कारण होते हैं, क्योंकि अकषायी आत्मा का केवल योग के कारण ही कर्मबन्ध होता है, परन्तु उसका क्षणिक एवं अनुभागबन्ध नहीं होता। स्थितिबन्ध और अनुभागबन्ध कषाय के कारण होते हैं। बन्धन के कारण ___ संसार के प्रत्येक कार्य का कोई न कोई कारण अवश्य होता है। अतः इस बन्धन का भी कोई कारण अवश्य होगा। जैन परम्परा में बन्धन के पाँच कारण माने गये हैंमिथ्यात्व; अविरति, प्रमाद, कषाय और योग। मिथ्यात्व- मिथ्यात्व यानी अयथार्थ दृष्टिकोण। मिथ्यात्व दृष्टिवाला लौकिक यश, लाभ आदि की दृष्टि से धर्म का आचरण करता है, क्योंकि उसमें स्व-पर विवेक नहीं होता। फलत: कल्याण मार्ग में उसकी सम्यक्-श्रद्धा नहीं होती। वह अनेक प्रकार के देव, गुरु तथा लोक मूढ़ताओं को धर्म मानता है। जरा-सा प्रलोभन से वह सभी अनर्थकार्य करने को उद्यत रहता है। ज्ञान, पूजा, कुल, जाति, बल, ऋद्धि और शरीर के मद में मस्त रहता है तथा दूसरे को तिरस्कृत दृष्टि से देखता है। यही मिथ्यादृष्टि है। इसके भी पाँच प्रकार होते हैं-एकान्त, विपरीत, विनय, संशय और अज्ञान। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002120
Book TitleJain evam Bauddh Yog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudha Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2001
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Biography
File Size14 MB
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