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जैन एवं बौद्ध योग : एक तुलनात्मक अध्ययन परमाणु और आत्मा परस्पर एक-दूसरे को प्रभावित करते हैं, वह बन्धन है। यह प्रक्रिया वैसे ही होती है जिस प्रकार दीपक अपनी उष्मा शक्ति के द्वारा तेल को आकर्षित कर उसे लौ रूपी शरीर में बदल देता है। ठीक इसी प्रकार आत्मा रूपी दीपक अपने रागभावरूपी उष्मा के कारण क्रिया रूपी बत्ती के द्वारा कर्म-परमाणु रूपी तेल को आकर्षित कर उसे अपने शरीर रूपी लौ में बदल देती है। वस्तुतः देखा जाए तो शरीर ही बन्धन का कारण है। यहाँ शरीर का तात्पर्य लिंग-शरीर, कर्म-शरीर या सक्ष्म शरीर से है। शरीर और आत्मा का सम्बन्ध अनादि है। व्यावहारिक जगत मे भी देखा जाए तो जहाँ आत्मा है वहाँ शरीर है और जहाँ शरीर है वहाँ आत्मा है। दोनों का सम्बन्ध दूध और पानी की भाँति है। यद्यपि दोनों का स्वरूप अलग-अलग है, किन्तु अनन्तानन्त काल से शरीर में आत्मा का निवास रहा है। एक शरीर छोड़ा तो दूसरा मिल गया, दूसरा छोड़ा तो तीसरा मिल गया। यह प्रक्रिया चलती रहती है। कर्म के बन्धन हेतु जीव या आत्मा को कहीं जाना नहीं पड़ता, बल्कि सारे लोक में कर्म-परमाणु बिखरे पड़े हैं जो मोह रूपी चिकनाहट के कारण जीव या आत्मा से चिपकते हैं। आत्मा में राग-भाव से क्रियाएं होती हैं, क्रियाओं से कर्म-परमाणओं का आस्रव (आकर्षण) होता है और कर्मास्रव से कर्मबन्ध होता है। यह बन्धन की प्रक्रिया कर्मों के स्वभाव (प्रकृति), मात्रा, काल, मर्यादा और तीव्रता-इन चारों बातों का निश्चय कर सम्पन्न होती है।' बन्धन के प्रकार
बन्धन के मुख्यत: दो प्रकार हैं- भावबन्ध एवं द्रव्यबन्ध। जिन राग-द्वेष और विकारी भावों से कर्म का बन्धन होता है उन भावों को भावबन्ध कहते हैं तथा कर्म-पुद्गल और आत्मप्रदेश के परस्पर सम्बन्ध को द्रव्यबन्ध कहते हैं।
इसके अतिरिक्त भी जैन-परम्परा में चार प्रकार के बन्ध बताये गये हैं-प्रकृतिबन्ध, प्रदेशबन्ध, स्थितिबन्ध और अनुभागबन्ध।
प्रकृतिबन्ध-प्रकृति अर्थात् स्वभाव के बन्धने को प्रकृतिबन्ध कहते हैं। यथा-ज्ञान को ढंकने का स्वभाव, सुख-दुःख अनुभव कराने का स्वभाव इत्यादि। तात्पर्य है कि कर्म के द्वारा आत्मा की ज्ञानशक्ति, दर्शनशक्ति, वीर्यशक्ति आदि किस शक्ति का आवरण होगा, इस बात का निर्धारण कर्म की प्रकृति करती है। जैसे ज्ञान को आवृत करने के स्वभाववाला कर्म-पुद्गल ज्ञानावरण कर्म है, ऐसे ही सुख-दुःख का अनुभव कराने के स्वभाववाला कर्म-पुद्गल वेदनीय कर्म है। इस प्रकार कार्यभेद के आधार पर कर्म की मूल प्रकृतियाँ आठ भागों मे विभक्त हैं- ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयुष्य, नाम, गोत्र और अन्तराय।
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